आभारी हूँ सिर मैं झुकाऊं,
जीवन अपर्ण मैं करता हूँ,
अमूल्य भेंट इससे अधिक क्या?,
सम्पूर्ण जीवन मैं सौंपता हूँ ।
1 दूर जब जाता हूँ प्रभु के प्रेम से,
घायल होता प्रभु का मन,
अब न जाऊँगा छोड़ तुझको दूर मैं,
सदा तेरे पास रहूँगा मैं ।
2 मन मेरा खींचता जग के विभव से, अभिलाषा जो बाधा मेरी,
मसीह के अद्भुत प्रेम के लिए ही,
सब बाधा को छोड़ता हूँ मैं ।
3 प्रेम है आगाध प्रभु जो तेरा,
सामर्थहीन हूँ वर्णन के मैं,
सदा तक मैं सेवा करूँगा,
ऋणी अब हूँ तेरा जो मैं ।
4 जग के लिए जीऊँ न मैं अब,
न जीऊँगा अपने लिए,
तुझे मैं छोड़ जाऊँ कहां अब,
ये छोटा जीवन देता हूँ मैं ।
5 दुखित होकर पछताता हूँ मैं,
बीते दिनों के सब पापों से,
बाकी जीवन आभारी होकर,
अर्पण करता हूँ सेवा में मैं।