Class 7, Lesson 9: यहूदा का राजा

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यहूदा के राजा (5) यहोराम (2 राजा 8:16-24; 2 इतिहास 21) यद्यपि यहोराम यहूदा के सर्वोत्तम राजाओं में से एक राजा का पुत्र था, परंतु अपने आप में वह सबसे बुरा था। उसने अहाब की बेटी अतल्याह से विवाह किया जो एक दुष्ट संगिनी थी और इसी बात ने यहोराम के आत्मिक जीवन को इतना नष्ट कर दिया कि उसने राजा अहाब की बुराइयों को अपनाया जिसमें बाल देवता की आराधना भी शामिल थी। यहोराम ने सभी प्रकार के पाप किया जिसमें हत्या, मूर्तिपूजा, उत्पीड़न और परमेश्वर की निंदा भी शामिल थी। केवल दाऊद के साथ परमेश्वर की प्रतिज्ञा ने ही यहोराम के संपूर्ण विनाश को बचा लिया था। परमेश्वर ने प्रतिज्ञा किया था कि वह हर पीढ़ी से एक राजा देगा ताकि उसका घराना तब तक लुप्त न हो जब तक कि मसीहा न आए जाए। परमेश्वर ने इस शर्तहीन प्रतिज्ञा को पूरा किया, तब भी जब दाऊद के वंश ने मतत्याग और पाप किया। यह बात यहूदा के राजाओं के साथ परमेश्वर की सहनशीलता को दिखाती है। यहूदा का राजा चाहे जितना भी बुरा क्यों न रहा हो, परमेश्वर ने उसके बेटे को उसके सिंहासन का उत्तराधिकारी बनाया। इस्राएल में ऐसा नहीं था। वहाँ उनकी दुष्टता के कारण उनकी राजसता एक-एक करके छाँट दी गई। बेशक, यहूदा के राजाओं की व्यक्तिगत दुष्टता भी किसी रीति से भी दंडरहित नहीं छोड़ी गई थी। यहोराम ने उन सुधारों को जो उसके भले पिता और दादा ने किया था, पूरी तरह खत्म कर डाला। उन लोगों के विषय सोचिये जो यहोशापात के अधीन थे जिन्हें परमेश्वर के वचन के अध्ययन के लिये प्रेरित किया गया, परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर विश्वास करने को सिखाया गया था, अब यहोशापात के पुत्र के अधीन उन्हीं लोगों को गंभीर दुखदायी रूप से पाप करने को मजबूर किया जा रहा था। यह सब एक दुष्ट स्त्री के प्रभाव से हुआ था क्योंकि अहाब की बेटी उसकी पत्नी थी।" (2 राजा 8:18; 2 इतिहास 21:6) पहली सजा जो यहोराम को मिली वह उसी के कुछ लोगों अर्थात् एदोमियों द्वारा विद्रोह था, जिन पर उसने विजय पाने का या दमन करने का असफल प्रयास किया था। यहाँ तक कि उसके अपने राज्य का एक शहर लिब्ना उसके विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था। एलिया ने यहोराम को एक पत्र लिखा था जिसे शायद उसने एलीशा के द्वारा भिजवाया था। लेकिन, यहोराम ने पत्र के संदेश पर ध्यान नहीं दिया, और अगली सजा जो उस पर आई वह उस पर पलिश्तियों और अरबों द्वारा आक्रमण था जिसका परिणाम उसके सबसे छोटे पुत्र यहोआहाज को छोड़कर उसकी बड़ी संपत्ति, पत्नियों, सभी पुत्रों का सर्वनाश हुआ। यहाँ तक कि यह डरावनी सजा ने भी यहोराम को उसकी दुष्टता से नहीं फेर सकी, और वह घातक बीमारी का शिकार हो गया जिसकी भविष्यवाणी एलिया ने किया था। जब वह मरा तो उसके लोगों ने उसके लिये विलाप नहीं किया उसे अनिच्छा से दफनाया गया। यद्यपि उसे राजाओं के मध्य दफनाने की अनुमति नहीं दी गई थी, उसे यरूशलेम में दफनाया गया। यहोराम के 8 वर्षीय शासन के अंत में जो युद्ध, विद्रोह और बीमारी से भरपूर था, उसका बेटा अहज्याह राजा बना, परंतु वह नाममात्र के लिये था। वास्तव में उसकी माँ अतल्याह ने यहूदा पर राज्य की, जैसे उसकी माँ यिजबेल ने उत्तर में इस्राएल पर राज्य की थी उन दो विधर्मी स्त्रियों ने जो परमेश्वर से घृणा करती थीं और उनके हृदयों में मूर्तिपूजा का दुष्टता से प्रेम करती थीं दोनों भी शाही घरानों के राज्यों का शासन अपने हाथों में रखी थीं। उनका प्रभाव इतना बड़ा था कि राष्ट्रीय विश्वास का भी देश से खातमा होने का खतरा बन चुका था। यह एक जटिल स्थिति थी जिसका बाद का परिणाम दंड हुआ। 6) रहूबियाम 2 (2 राजा 8:25-29; 2 इतिहास 22:1-7)। अहज्याह जो उसके पिता यारोबाम का उत्तराधिकारी बना और यहूदा के सिंहासन पर बैठा दो भिन्न नामों से जाना जाता था। (2 राजा 8:25) उसे अहज्याह और (2 इतिहास 21:17) में उसे यहोआहाज के नाम से जाना जाता था। वह उसके पिता के समान ही एक बहुत दुष्ट व्यक्ति था। उसके आसपास ऐसे पिता, ऐसी माता और ऐसे परामर्शदाताओं से क्या बेहतर उम्मीद की जा सकती थीं? सौभाग्य से उसका शासन केवल एक वर्ष ही चला। उसका मामा योराम, अर्थात उसकी माँ का भाई इस्राएल का राजा था और अहज्याह को सीरिया के विरुद्ध युद्ध में शामिल होने उकसाया गया। योराम युद्ध में घायल हो गया था और सुधरने के लिये यिज्रेल गया था। वहीं पर अहज्याह अपने मामा को मिलने गया और येहू के द्वारा मार डाला गया। 7) अतल्याह (2 राजा 11:1-16; 2 इतिहास 23:12-15) जब अतल्याह ने जो अहज्याह की माँ थी देखी कि उसका बेटा मर गया है तो वह समस्त शाही परिवार को नष्ट करने को उठी। परंतु अहज्याह की बहन यहोशेबा जो यहोराम राजा की बेटी थी उसने अहज्याह के छोटे पुत्र योआश को घात होने वाले अन्य राजकुमारों में से चुरा ली। यहोशेबा ने योआश और उसकी घाई को शयनकक्ष में छिपा दी ताकि अतल्याह के हाथ न पड़ें। वे परमेश्वर के घर में 6 वर्ष तक अर्थात जब तक अतल्याह शासन करती रही, छिपे रहे। अतल्याह के शासन के 7वें वर्ष में याजक यहोयादा ने कमांडरों और संतरियों को परमेश्वर के मंदिर मे बुलवाया। उसने उनके साथ एक वाचा बांधा और उनसे परमेश्वर के भवन में वफादारी की प्रतिज्ञा करवाया फिर उसने उन्हें राजा के पुत्र को दिखाया। उसने उन्हें परमेश्वर के मंदिर में ही राजा की रक्षा करने को कहा। इसलिये कमांडरों ने ठीक वैसा ही किया जैसा यहोयादा याजक ने करने को कहा था। कमांडरों ने उस सब्त के दिन आने और जानेवाले लोगों को जो ड्यूटी करते थे अपने साथ कर लिया। उन्होंने उन सब को यहोयादा याजक के पास लाया और याजक ने उन्हें दाऊद के भाले, ढाल दे दिया जो मंदिर मे रखे गए थे। रक्षक लोग राजा के चारों और हथियार लेकर तैनात हो गए। वे मंदिर के सामने भी चारों तरफ खड़े हो गए और वेदी को भी घेर लिया। तब यहोयादा ने योआश को बाहर लाया और मुकुट को उसके सिर पर रख दिया। उसने योआश को परमेश्वर के वाचा की एक प्रति भी दिया और उसे राजा घोषित किया। उन्होंने उसका अभिषेक किया और तालियाँ बजाकर चिल्लाने लगे "राजा चिरायु हो।" जब अतल्याह ने रक्षकों और लोगों की आवाज सुनी तो वह देखने के लिये मंदिर की ओर भागी के वहाँ क्या हो रहा हैं। और उसने खंबे के पास अधिकार के स्थान पर नए राजा को खड़ा हुआ देखा जो मुकुट पहने हुए था।यह सब कुछ परंपरा के अनुसार हुआ था।अधिकारी और तुरही फूँकने वाले उसके आसपास खड़े थे, और देशभर से आए हुए लोग आनंद कर रहे थे और तुरहियाँ फूँक रहे थे। जब अतल्याह ने यह सब देखी तो निराशा में अपने वस्त्र फाड़ी और चिल्ला पड़ी, "धोखा! धोखा!" तब यहोयादा याजक ने सेना के कमांडरों को आज्ञा दिया कि, "उसे मंदिर से बाहर निकालो, और जो उसे बचाने आए उसे मार डालो। अतल्याह को परमेश्वर के मंदिर में मत मारो।" इसलिये उन्होंने उसे बंदी बनाया और उसे फाटक के बाहर ले गए जहाँ से छोटे महल में प्रवेश करते हैं और वहाँ उसे मार डाला। 8) योआश (2 राजा 11:21 - 13:13; 2 इतिहास 24) योआश ने शासन की शुरूवात अच्छी तरह किया और तब तक करता रहा जब तक यहोयादा याजक जीवित था और उसका मार्गदर्शन किया। जब वह राजा बना तो 7 वर्ष का था। योआश के शासनकाल सबसे महत्वपूर्ण कार्य जो पूरा किया था वह मंदिर की मरम्मत था जो जर्जर हो गया था और अतल्याह के दुष्ट परिवार ने तोड़ डाला था। मंदिर की मरम्मत के लिये राजा द्वारा बनाई गई धनार्जन की योजना विफल हुई। उसने याजकों को कहा, "परमेश्वर के मंदिर में लाए जानेवाले सभी पवित्र दानों को इकट्ठा करो। उसी में से याजक लोग थोड़ा धन लेकर मंदिर की मरम्मत के लिये खर्च करें।" परंतु योआश के शासन के 23वें वर्ष तक याजक लोग मंदिर के मरम्मत का कार्य शुरू नहीं कर पाए। लेकिन यहोयादा याजक द्वारा बनाई गई योजना कारगर सिद्ध हुई। उसने एक बड़े संदूक के ढक्कन पर एक छेद किया और उसे वेदी की दाहिनी और रख दिया जो परमेश्वर के मंदिर के प्रवेश द्वार के पास था। जो याजक प्रवेश द्वार पर खड़े रहकर रक्षा करते थे, वे लोगों से दान लेकर उस संदूक में डाल देते थे। जब भी संदूक भर जाता था, धन को गिना जाता था और उसे परमेश्वर के मंदिर में लाकर मरम्मत के कार्य के लिये उपयोग में लाया जाता था। इस प्रकार मरम्मत का कार्य तेजी से पूरा हो गया। जब यहोयादा 130 वर्ष की लंबी आयु के बाद मर गया और उसे सम्मान के साथ राजाओं के संग गाड़ा गया तब देश ने एक अत्यंत प्रभावशाली व्यक्ति को खो दिया था। तब राजा योआश 30 वर्ष की आयु से ज्यादा का था। बचपन से ही वह एक अच्छे याजक की आज्ञाओं के अधीन था तो उसे लोगों को ईश्वर का मार्ग बताने के काबिल होना ही था। इसके विपरीत यहोयादा की मृत्यु के बाद, उसने उन राजकुमारों की बातों को सुना जो हृदय से मूर्तिपूजक थे और जल्द ही परमेश्वर का घर मूर्तियों से भर गया। परिणामस्वरूप, परमेश्वर का क्रोध यहूदा और यरूशलेम पर भड़क उठा। परमेश्वर ने अपनी दया के कारण उनके पास भविष्यद्वक्ताओं को भेजा परंतु वे उन्हें नहीं सुने। जब अराम के राजा हजाएल ने यरूशलेम पर हमला किया, तब मदद के लिये योआश ने परमेश्वर को नहीं पुकारा। इसके विपरीत उसने मंदिर के खजाने को अरामी राजा को दे दिया। वह घूस लेकर थोडे़ समय तक संतुष्ट रहा। जब परमेश्वर ने उन्हें वापस लौटने के लिये भविष्यद्वक्ताओं को भेजा तो लोगों ने उनकी नहीं सुना। तब परमेश्वर का आत्मा यहोयादा याजक के पुत्र जकर्याह पर उतरा। वह लोगों के बीच खड़ा हुआ और बोला, परमेश्वर यों कहता है कि तुम यहोवा की आज्ञाओं को क्यों टालते हों? ऐसा करके तुम्हारा भला नहीं हो सकता। देखो, तुमने तो यहोवा को त्याग दिया है, इस कारण उसने भी तुम को त्याग दिया है।" अगुवों ने जकर्याह को मार डालने का षड़यंत्र रचा और स्वयं योआश राजा के आदेश से उन्होंने उसे मंदिर के आंगन में ही पथराव करके मार डाला। यही तरीका था जिसके द्वारा योआश राजा ने यहोयादा के प्रेम और वफादारी का बदला दिया था - उसने यहोयादा के पुत्र को मार डाला था। मरते समय जकर्याह के अंतिम शब्द थे, यहोवा इस पर दृष्टि करके इसका लेखा ले।" इस प्रकार योआश ने आदर और कृतज्ञता के सभी गुण त्याग चुका था। शहीद याजक के खून का बदला लिया गया। उसी वर्ष अराम के राजा हजाएल के द्वारा सभी राजकुमार मारे गए और फिर योआश उसी के दासों द्वारा मारा गया और उसे राजाओं के कब्रस्तान में दफनाने से इन्कार कर दिया गया (2 इतिहास 24:25-27)। 9) अमस्याह (2 राजा 14:1-16; 2 इतिहास 25) जब अमस्याह सिंहासन पर बैठा तब वह 25 वर्ष का जवान था। और उसने अपना शासन अच्छी तरह शुरू किया। कहा जाता है कि उसने वही किया जो परमेश्वर की दृष्टि में ठीक था, परंतु उसके पिता दाऊद के समान नहीं। परमेश्वर हमेशा हृदय को देखता है, यद्यपि अमस्याह के शासन के आरंभिक वर्ष सही थे, उसका ह्रदय दाऊद के समान परमेश्वर के साथ सिद्ध नहीं था। अमस्याह को परमेश्वर की व्यवस्था के प्रति सम्मान था। वह इस बात की वास्तविकता में देखा जाता है कि जब उसने उन दासों को मारा जिन्होंने उसके पिता की हत्या किया था, तो उसने उनके बच्चों को नहीं मारा, जिसकी अनुमति परमेश्वर की व्यवस्था नहीं देती। (व्यवस्थाविरण 24:16)। शायद परमेश्वर की व्यवस्था के प्रति उसका ज्ञान और सम्मान उसकी माँ के प्रभाव के कारण था। अच्छे याजक यहोजादा ने ही उसे अमस्याह के पिता की पत्नी होने के लिये चुना था। (2 इतिहास 24:3) और यह हो नहीं सकता कि भले याजक ने धर्मी स्त्री को छोड़ किसी और को यहूदा की रानी होने के लिये चुना होता। अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के बाद अमस्याह एदोम से युद्ध करने गया। जाहिर है कि उसने अपनी सेना को एदोमियों को हराने के लिये सशक्त नहीं पाया, क्योंकि उसने इस्त्राएल से भी 1,00,000 सैनिकों को किराए पर लिया था जो उसकी अपनी सेना का 1/3 हिस्सा थे। इन सैनिकों की सेवा के लिये उसने चांदी के 100 किक्कार अदा किया था। अमस्याह ने एदोमियों के विरुद्ध यह युद्ध परमेश्वर की सम्मति लिये बिना ही किया था जो उस संदेश से प्रगट है जो उसे परमेश्वर के द्वारा भेजा गया था। लेकिन उसने उस रकम को छोड़ देना उचित समझा बजाए परमेश्वर की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करने के। उसके लिये यही सही था। "जब भी विश्वासी परमेश्वर के साथ और उसके वचन के साथ सच्चे रहने में नुकसान झेलते हैं तो उन्हें यह याद रखना चाहिये कि परमेश्वर जिसका इस तरह आदर किया जाता है वह उन्हें इस नुकसान से भी ज्यादा लौटा सकता है।" एदोमियों पर अमस्याह की विजय पूरी और दयाहीन थी। इसी बीच इस्राएल की वह सेना जिसे वापस भेज दिया गया था, उन्होंने वापस भेजे जाने के अपमान का बदला यहूदा के नगरों को लूटने के द्वारा लिया। यह अमस्याह के जीवन का परिवर्तन बिंदु था। एदोम के विरुद्ध उसकी सफलता ने उसे न ही घमंड से भर दिया था परंतु वह एदोम के मूर्तियों से इतना मोहित हो गया था कि वह स्वयँ भी मूर्तिपूजक बन गया था। परमेश्वर के संदेशवाहक के प्रति उसकी नीति पर गौर करें। उसकी मूर्तिपूजा और परमेश्वर की चेतावनी को मानने से इन्कार ने उसे तबाह कर दिया। (2 इतिहास 25:15-16)। हाल की सैन्य विजय के घमंड से प्रेरित होकर, और इस्राएल की वापस भेजी गई सेना द्वारा किए गए नुकसान का बदला लेने के लिये अमस्याह ने इस्राएल के राजा यहोआश को युद्ध के लिये ललकारा। शायद उसके भ्रम में उसने इस्राएल के राज्य को हथियाने की सोचा था जो उसके अपने राज्य से तीन गुणा बड़ा था, उसने उसे भी यहूदा में पुनः मिलाने की सोचा। लेकिन इस्राएल के राजा जो बड़ी सेना से सुरक्षित था, उसने अमस्याह की ललकार को हल्की तौर पर लिया और उसे एक दृष्टांत द्वारा जवाब दिया और उसे कड़ी सलाह दिया कि घर पर ही रहे और प्राप्त विजयों में ही संतुष्ट रहे। शायद जो सलाह अमस्याह ने लिया था वह उसी के सम्मतिदाताओं की थी। उस दृष्टांत में जिसके द्वारा यहोआश ने अमस्याह को उत्तर दिया था उसने स्वयं को देवदारु के समान और अमस्याह को गोखरू के समान तुलना किया था। "जंगली जानवर" स्पष्ट रूप से उसकी अपनी सेना को दिखाता है जिसे वह यकीन के साथ सोचता था कि वह यहूदा को आसानी से मसल देगी। और वह यरूशलेम आया, यरूशलेम की दीवार को तोड़ा जो एप्रैम के फाटक से कोने के फाटक तक जो 400 सौ हाथ थी। अमस्याह की पूरी हार हो चुकी थी और परमेश्वर के कहे अनुसार उसे मूर्तिपूजा की सज़ा मिली थी। यद्यपि अमस्याह उसके विजेता इस्राएल के राजा की मृत्यु के बाद 15 वर्ष और जीवित रहा, वे सूखे वर्ष रहे। जब से उसने परमेश्वर को छोड़ा, उसकी प्रजा का हृदय भी उससे दूर हो गया। यरूशलेम में उसके विरुद्ध एक षड़यंत्र रचा गया और जब वह लाकीश को भाग रहा था, उसका पीछा करके उसे मार डाला गया। 10) अजर्याह (उज्जियाह) 2 राजा 15:1-7; 2 इतिहास 26 उज्जियाह अजर्याह भी कहलाता था। उसे 16 वर्ष की आयु में राजा बनाया गया और उसने 51 वर्ष तक शासन किया। उसके शासनकाल को दो अवधियों में बाँटा जा सकता है: पहला, जब उसने परमेश्वर की आज्ञा का पालन किया और उन्नति किया। दूसरा, जब उसने परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया और दंडित हुआ। लेकिन दोनों में से पहली अवधि ज्यादा समय की थी। उज्जियाह ने अपनी उन्नति का श्रेय परमेश्वर को दिया (2 इतिहास 26:5)। उन कई तरीकों को देखें जिनसे उसने तरक्की किया: क) उसके युद्धों के द्वारा (2 इतिहास 26:6-8) ख) अपनी रक्षा द्वारा। उसकी राजधानी की सुरक्षा के लिए मीनारें बनाकर। ( 2 इतिहास 26:9) ग) उसके कृषि उद्योग द्वारा ( 2 इतिहास 26:10) घ) उसकी सेनाओं द्वारा ( 2 इतिहास 26:11-15) अब उस अपशकुन शब्द को देखें जिससे 2 इतिहास 26:16 शुरू होता है। वचन में यह छोटा शब्द "परन्तु" कई बार आया है तब भी जब किसी व्यक्ति के विषय काफी अच्छी बातें कही गई हों। यह पद उज्जियाह के शासन के दूसरे चरण की शुरुवात को दर्शाता है, जिसमें उसने परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया और दंडित हुआ। उज्जियाह के हृदय में घमंड आ गया। अत्याधिक उन्नति और सम्मान ने उसके सिर को घूमा दिया और ऐसा लगता था मानो वह सोचता था कि कुछ भी उसके लिए ज्यादा भला या अच्छा नहीं है, और यह कि वह जो चाहता है, वह नहीं कर सकता। इसलिए उसने निडरता से याजक के कार्यालय पर धावा बोला और याजक के बार-बार चेतावनी देने के बावजूद उसने मंदिर में धूप जलाना शुरू किया। मूसा के निर्देशानुसार यह परमेश्वर की इच्छा का सीधा उल्लंघन था, राजा और याजकीय सेवाएँ परमेश्वर की व्यवस्था के अनुसार अलग किए गए थे और उन्हें सिवाय मसीहा की देह के, फिर से जोड़ा नहीं जा सकता था।" राजा उज्जियाह का दंड तत्काल और भयानक था। उसके माथे पर अचानक कोढ़ हो गया। जब अजर्याह और अन्य याजकों ने कोढ़ को देखा तो उसे तुरंत बाहर निकाल दिया। और राजा स्वयं भी बाहर निकल जाने को आतुर था क्योंकि उसे परमेश्वर ने मारा था। उसे उसकी मृत्यु के दिन तक कोढ़ रहा। वह एकाकी रहता था, और परमेश्वर के मंदिर से हटाया या निष्काशित किया हुआ था। उसका बेटा योताम शाही महल का अधिकारी बनाया गया और उसने देश के लोगों पर राज्य किया। क्योंकि उज्जियाह को कोढ़ हो गया था, उसका पुत्र योताम लोगों का न्याय करता था, और जब वह मरा तब उसे बिना सम्मान अर्पित किए ही दफनाया गया। 11) योताम (2 राजा 15:21-32:38; 2 इतिहास 27) योताम जब राजा बना तब वह 25 वर्ष का था, और उसने यरूशलेम पर 16 वर्ष शासन किया। उसकी माता का नाम यरूशा था जो सादोक की बेटी थी। उसने उसके पिता उज्जियाह के समान वही किया जो परमेश्वर की दृष्टि में ठीक था। परंतु उसके विपरीत योताम परमेश्वर के मंदिर के उपरी फाटक को फिर से बनाया और ओपोल की शहरपनाह पर बहुत कुछ बनाया। उसने यहूदा के पहाड़ी देश में नगरों को बनाया और जंगल क्षेत्रों में किले और मीनारें बनाया। योताम ने अममोनियों के विरुद्ध युद्ध घोषित किया और उन पर विजय हासिल किया। अगले तीन वर्षों तक उसने उनसे चांदी, गेंहूँ और जब की भेंट प्राप्त किया। वह इसलिए शक्तिशाली बना क्योंकि वह उसके परमेश्वर की आज्ञापालन के विषय सतर्क रहता था। उसने यरूशलेम पर 16 वर्ष शासन किया। जब वह मरा तो उसे दाऊद के नगर में दफनाया गया, और उसका पुत्र आहाज अगला राजा बन गया।

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