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यहूदा के राजा 1) रहूबियाम (1राजा 12-14) जब सुलैमान मर गया, उसे उसके पिता दाऊद के नगर में दफनाया गया। उसका पुत्र रहूबियाम शेकेम को गया जहाँ सभी इस्राएली उसे राजा बनाने के लिये इकट्ठे हुए थे। यद्यपि वे प्रत्यक्ष रूप से उसे अपना राजा स्वीकार करने के लिये तैयार थे, उससे पहले वे एक बात स्पष्ट करना चाहते थे। इसलिये वे उनके लोकप्रिय अगुवा यारोबाम के साथ रहूबियाम के पास आए और अपनी शर्त को उसके सामने रख दिये जिसके आधार पर वे उसे अपना राजा मानने के लिये राजी थे। वे चाहते थे कि सुलैमान द्वारा लगाए जानेवाले कर में कटौती की जाए, वे भूल गए थे कि उन पर शासन करने के लिये राजा की मांग का ही यह इश्वरीय दंड था (1 शमुएल 8:10-17)। काश लोग और देश इस कारण और प्रभाव के व्यापक सिद्धांत को समझ पाते। जवान सम्मतिदाताओं के साथ मश्विरे का परिणाम उसके द्वारा (रहूबियाम) इस्राएलियों को अपमानजनक उत्तर था। इसका परिणाम दस उत्तरी जातियों द्वारा तत्काल विद्रोह हुआ। रहूबियाम ने विभाजन को रोकने का फिर भी एक असफल और तरकीबहीन प्रयास किया था। उसने महसूल लेनेवालों के मुखिया अदोराम को अपना दूत बनाकर इस्राएल के लोगों के पास भेजा। संभवतः अदोराम उस समय जब उनके सामने आया तब वह ऐसा व्यक्ति था जिससे अत्याधिक घृणा की जाती थी। उन्होंने रहूबियाम को समर्पित करने या किसी समझौते को मानने के विषय उनकी नीति को अदोराम को पत्थरवाह करके मार डालने के द्वारा दिखाया। इस बात से पूरी तरह सतर्क होकर रहूबियाम यरूशलेम को भाग गया। एक बार फिर यरूशलेम में सुरक्षित होकर रहूबियाम ने दस गोत्रों के विद्रोह का बलपूर्वक दमन करने की सोचा और यहूदा और बिन्यामीन के गोत्रों से 1,80,000 लोगों की सेना को इकट्ठा किया। तब परमेश्वर का यह वचन परमेश्वर के जन शमायाह के पास पहुँचा, "यहूदा के राजा सुलैमान के पुत्र रहूबियाम से, और यहूदा और बिन्यामीन के सब घराने से और सब लोगों से कह, यहोवा यों कहता है कि अपने भाई इस्राएलियों पर चढाई करके युद्ध न करो; तुम अपने अपने घर लौट जाओ, क्योंकि यह बात मेरी ही ओर से हुई है।" यहोवा का यह वचन मानकर उन्होंने उसके अनुसार लौट जाने को अपना मार्ग लिया। अब इस्राएल देश "अपने आप में ही विभाजित राज्य" बन गया। रहूबियाम ने यहूदा पर अपने पिता सुलैमान के साथ एक वर्ष राज्य किया और फिर अकेले 16 वर्ष तक राज्य किया। उसकी माँ नामाह, एक अम्मोनी स्त्री थी। ऐसा दिख पड़ता है कि उसके शासन के प्रथम तीन वर्षों में वह और उसके लोग प्रभु की सेवा करते थे। फिर परिस्थितियाँ बिगड़ने लगी। यहूदा ने अपने पापों के कारण परमेश्वर को क्रोधित किया और परमेश्वर ने मिस्र का उपयोग छड़ी के समान किया कि यहूदा को उसकी अनाज्ञाकारिता के लिये दंडित करें, और रहूबियाम के शासन के 5वें वर्ष में मिस्रियों को आकर मंदिर का खजाना और यरूशलेम के शाही महल का खजाना लूटने दिया। मिस्र के राजा शीशक ने यरूशलेम पर हमला करके उसे लूट लिया। उसने परमेश्वर के मंदिर और शाही महल को लूट लिया और सब कुछ चुरा लिया जिनमें सोने की वे ढालें भी थीं जिन्हें सुलैमान ने बनवाया था। उसके बाद रहूबियाम ने उनके स्थान पर पीतल की ढालें बनवाया और उन्हें महल के रक्षक अधिकारियों को सौंप दिया। जब भी राजा प्रभु के मंदिर में जाता था, रक्षक उन्हें लेकर चलते थे और फिर वे उन्हें सुरक्षा कक्ष में रख देते थे। यह यहूदा का बहुत बड़ा नुकसान था। परंतु रहूबियाम, यारोबाम के समान कठोर नहीं था। रहूबियाम और उसके लोगों ने परमेश्वर को ताड़ना और फटकार के चलते अपने आपको नम्र किया, और इस तरह परमेश्वर के न्याय को आगे के लिये रोक दिया गया। जब वह मर गया तो उसे दाऊद के नगर में दफनाया गया और उसके स्थान पर उसका बेटा अबिय्याम राज्य करने लगा। 2) अबिय्याम (1 राजा 15:1-8) अबिय्याम रहूबियाम और उसकी पत्नी माका का बेटा था। वह संभवत अबशालोम की पोती थी। जैसा कि 1 राजा की पुस्तक में पाया जाता है अबिय्याम का शासन बुरा था क्योंकि "वह अपने पिता के पापों की रीति पर चला।" परंतु 2 इतिहास 13वें अध्याय में हम उसे परमेश्वर पर उसके विश्वास की गवाही देते हुए देखते हैं। "परंतु हम लोगों का परमेश्वर यहोवा है और हमने उसको नहीं त्यागा" उसने कहा। उसने उनके 3 वर्षीय शासन की अच्छी शुरूवात किया और परमेश्वर पर उसके विश्वास के कारण वह यारोबाम के साथ युद्ध में विजयी हुआ। परंतु जल्द ही वह परमेश्वर को भूल गया और अपने आप पर भरोसा करने लगा, बुरे राजाओं के मार्गों पर चलने लगा जैसे कई पत्नियों से विवाह करना। अबिय्याम के विषय दो अनुच्छेद पाए जाते हैं: क)2 इतिहास 13:4-12। यह परमेश्वर के साथ वााचा के संबंध के विषय उलझनों पर टीका दी गई है (नमक वाली वाचा पद 5) इसलिये क्योंकि नमक का सुरक्षात्मक गुण वाचा की स्थायी और अपरिवर्तनीय गुण को दिखाता है। ख) 1 राजा 15:4-5। यहाँ दाऊद की खातिर यहूदा के राज्य को स्थायी बनाने के लिये परमेश्वर की दया और करूणा दिखाई गई है। 3) आसा (1 राजा 15:9-23; 2 इतिहास अध्याय 14-16) आसा का जीवन उससे पहले के दो राजाओं के जीवन से बिलकुल भिन्न था। उसने तब ही शासन करना शुरू कर दिया था जब इस्राएल का पहला राजा यारोबाम सिंहासन पर ही था (1 राजा 15:9) और इस्राएल के सातवें राजा आहाब ने आसा के यहूदा पर शासन खत्म होने से पहले ही अपना सिंहासन ऊँचा किया (1 राजा 16:29)। जब ये सातों राजा दुष्ट थे तब आसा ऐसा व्यक्ति था जिसका हृदय परमेश्वर के साथ था। बेशक इसका अर्थ यह नहीं होता कि आसा दोषरहित था। उसने ऐसे कार्य किया जो परमेश्वर पर उसके कमजोर विश्वास को दिखाते हैं। उसने गलतियाँ किया, वह क्रोधित हुआ, और पाप किया तौभी उसका हृदय परमेश्वर के साथ सिद्ध था। दाऊद के समान वह भी परमेश्वर की इच्छा को पूरी करना चाहता था। उसका उद्देश्य अपनी इच्छा के बजाय परमेश्वर की इच्छा को पूरी करना था, यद्यपि कभी-कभी वह परीक्षा में भी पड़ा। आसा के जीवनकाल की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं। 1) आसा जब सिंहासन पर बैठा तब वह बहुत जवान था, परंतु उसने तुरंत ही यहूदा में सुधार करना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि उसने मूर्तिपूजा करने के कारण अपनी दादी माँ को रानी दादी माँ के ओहदे पर से हटा दिया। 2) आसा के पहले दस वर्ष के शासन में कोई युद्ध नहीं हुआ। शांति के इस समय में उसने यहूदा के कई शहरों का निर्माण किया और वह अपने लोगों को यह बताना नहीं भूला कि परमेश्वर ने उन्हें हर जगह शांति दिया है। 3) फिर इथियोपिया के साथ युद्ध हुआ जिसने परमेश्वर पर आसा के विश्वास की परीक्षा लिया। दक्षिण से एक बड़ी सेना ने यहूदा पर आक्रमण किया, वह इतना बड़ा आक्रमण था कि आसा को विजय पाने की कोई आशा ही नहीं थी। उसकी प्रार्थना ने उसे बता दिया कि परमेश्वर पर उसका विश्वास कितना गहरा था और परमेश्वर ने उसके विश्वास का सम्मान किया। 4) लेकिन परमेश्वर मानवीय हृदय को जानता है। वह जानता है कि मनुष्य अपनी विजय के पश्चात् उसकी अपनी शक्ति और बुद्धि पर कितना घमंड करता है और फिर परमेश्वर पर उसकी निर्भरता के विषय वह चूक जाता है। जब वे युद्ध से लौट रहे थे, भविष्यद्वक्ता ने उन्हें मार्ग में परमेश्वर की चेतावनी से अवगत कराया। भविष्यद्वक्ता के शब्दों ने आसा को काफी चुनौती प्रदान किया और उसने परमेश्वर को बलिदान चढ़ाने और उसकी स्तुति करने में अगुवाई किया और धार्मिक जोश काफी उँचाइयों तक पहुँच गया था। 5) आसा के 36 वर्ष के शासन में इस्राएल का राजा बाशा उग्र हो गया और यहूदा की सुरक्षा को धमकी देने लगा। आसा निश्चित रूप से उन माध्यमों को भूल गया था जिसके द्वारा इथियोपिआई लेागों पर विजय हासिल की गई थी। परमेश्वर से प्रार्थना करने के बजाय उसने विधर्मी राजा से समझौता कर लिया जिसका नाम बेन हदाद था जो सिरिया का रहनेवाला था। यह बहुत दुख की बात है कि राजा आसा जिसका किसी समय परमेश्वर पर बड़ा विश्वास था, उसने इतने भय और विश्वास की कमी को प्रगट किया। 6) यद्यपि बाशा के विरुद्ध युद्ध से सैन्य विजय प्राप्त हुई, इसका परिणाम परमेश्वर की ओर से कड़ी चेतावनी मिली और परमेश्वर की बजाय मनुष्य के बल पर भरोसा रखने की सजा निरंतर युद्ध मिली। 7) उसके जीवन के अंतिम वर्षों में आसा विश्वास के उस उच्च स्थान से गिर गया जहाँ से उसने शासन शुरू किया था। जब परमेश्वर के नबी हनानी ने उसे परमेश्वर का संदेश पहुँचाया तो पश्चाताप करने के बजाय वह क्रोधित हो गया और उसे बंदीगृह में डाल दिया। उसके शासन के 39वें वर्ष में आसा को पैर की एक गंभीर बीमारी हो गई। यहाँ तक कि जब बीमारी जानलेवा भी हो गई तब भी उसने यहोवा की मदद नहीं लिया परंतु उसने केवल अपने वैद्यों की ही मदद लिया। इस तरह वह उसके शासन के 41वें वर्ष में मर गया। उसे उसी के द्वारा तैयार की गई कब्र में जो दाऊद के नगर में थी, दफनाया गया।उसे सुंगधित मसालों और द्रव्यों के बिछौने पर रखा गया और उसकी दफन विधि के समय लोगों ने उसके समान में काफी धूप भी जलाया। (4) यहोशापात -(1 राजा 22:41-48; 2 इतिहास अध्याय 17:21) 2 राजा की पुस्तक में यहोशापात के शासन के विषय बहुत कम ही आयतें लिखी गई हैं। परंतु 2 इतिहास की पुस्तक में इस धर्मी और प्रभावशाली राजा के विषय हम विस्तृत ब्यौरा पाते हैं। उसने यहूदा पर 25 वर्ष शासन किया, जिसके दौरान इस्राएल में अहाब, अहजिय्याह और योराम जैसे विभिन्न राजाओं ने राज्य किया। जब वह 35 वर्ष की आयु में यहूदा का राजा बना तब अहाब इस्राएल पर करीब 4 वर्ष से राज्य कर रहा था। यहोशापात ने अपना शासन स्वयं को मजबूत बनाकर शुरू किया और उसकी शक्ति का स्त्रोत परमेश्वर था। "और परमेश्वर उसके साथ था क्योंकि वह परमेश्वर के साथ सच्चा था।" (2 इतिहास 17:1-6)। उसने चाहा कि उसके लोग वैसे ही चलें जैसे वह अपने पिता दाऊद की रीति पर चलता था। वह चाहता था कि वे परमेश्वर पर मजबूत विश्वास करें। उसने लेवियों, याजकों और राजकुमारों को व्यवस्था की पुस्तक की प्रति लेकर यहूदा के सभी नगरों में भेजा कि वे घूम-घूमकर लोगों को सिखाएँ। इस बात का अद्भुत और लाभदायक परिणाम निकला। (2 इतिहास 17:6-9)। यह राष्ट्रीय स्तर पर जागृति थी। उन भौतिक परिणामों को गौर करें जो बाद में हुए। आसपास के सभी देशों में शांति थी। देश की आय में वृद्धि हुई। यहूदा के सारे नगरों में बांधकाम और व्यवसाय के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जागृतियाँर् आइं। और यरूशलेम में एक बड़ी सेना तैनात की गई। (2 इतिहास 17:10-19)। सुलैमान के बाद कोई और राजा नहीं हुआ जिसने यहोशापात के धन, निर्माणों की ताकत और सेना की बराबरी किया हो। परमेश्वर की सेवा करना आशीष का कारण होता है। अक्सर यहूदा और इस्राएल के राज्यों के बीच युद्ध हुआ करते थे, परंतु यहोशापात ने इस्राएल के राजा के साथ शांति स्थापित किया। लेकिन शांति प्रयास अस्थायी थे आखिरकार तब तक जब यहोशापात ने स्वयँ को उलझनों में फँसा पाया, जिससे उसका राज्य कभी पूरी तरह नहीं उभर सका। इस्राएल के राजा के साथ शांति संबंधों के कारण वह उससे मिलने गया और वहाँ सीरियाइयों के साथ युद्ध में सम्मिलित हो गया जिसमें वह करीब करीब अपना जीवन गवाँ ही चुका था। बाद में, उसने इस्राएल के राजा के साथ व्यवसाय भी किया लेकिन उसके जहाज नष्ट हो गये थे। परंतु इससे भी बुरी बात यह हुई कि यहोशापात के पुत्र ने अहाब और जिजबेल की बेटी से विवाह किया। यह जवान राजकुमारी उसकी माँ की तरह ही थी। जब वह यहूदा की रानी बनी उसने बाल की पूजा प्रचलित की और करीब-करीब दाऊद के वंश के सभी शाही बीजों को नाश करने में सफल हो गई। दुष्टों के साथ हाथ मिलाने का परिणाम हमेशा विनाशकारी होता है। परमेश्वर की उसकी संतानों के लिये यही इच्छा होती है कि वे ऐसे लोगों से दूर रहें "अविश्वासियों के साथ असमान जूए में न जुतो।" (2 कुरि 6:14) जब उसे परमेश्वर की ओर से कड़ी फटकार मिली, तब यहोशापात ने कोई जवाब नहीं दिया, और यही बात दर्शाती है कि उसने हृदय में सच्चा पश्चाताप किया था। फिर उसने पूरे यहूदा देश में न्यायियों की नियुक्ति करना शुरू किया। उन्हें आज्ञा दी गई थी कि वे "मनुष्यों के लिये नहीं परंतु परमेश्वर के लिये न्याय करें।" (2 इतिहास 19:6)। उन्हें न्याय करना था जो लोगों के सम्मान या धूल लेकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था और उन्हें विश्वासयोग्यता और सिद्ध हृदय से न्याय करना था। आज समाज में कितनी आशीष की बात होगी यदि ऐसे न्यायी हों जो राजा यहोशापात के निर्देशों का पालन करते हों। शांति के वर्षों के बाद यहूदा को मोआबियों और अम्मोनियों की धमकियों का सामना करना पड़ा जिन्होंने बड़ी सेना के साथ उपन पर आक्रमण कर दिया। अपने योद्धाओं की गिनती लगाने की बजाय या सहायता के लिये किसी अन्य देश की मदद मांगने के बजाय यहोशापात सीधे सीधे प्रार्थना में परमेश्वर के पास गया, और उसके लोग उसके साथ चले। इस प्रार्थना सभा की अगुवाई स्वयं उसी ने किया और उसने कितनी अच्छी प्रार्थना किया। जब हम यहोशापात की प्रार्थना का अध्ययन करते हैं और उसके बल के तत्वों का अवलोकन करते हैं तो हम देखते हैं कि उसने किस तरह परमेश्वर की सर्वोच्चता और उसक सर्वसामर्थी होने को स्वीकारा। हम यह भी देखते हैं कि किस तरह उसने परमेश्वर के लोगों के साथ उसके व्यवहारों की याद किया और किस तरह उसने लोगों की महान आवश्यकता को और उनकी अपनी विवशता को परमेश्वर के समक्ष रखा। फिर पुरुष, स्त्री और बच्चे सभी इस प्रार्थना सभा में सम्मिलित हुए। "सारा यहूदा परमेश्वर के सामने उपस्थित हुआ।" (2 इतिहास 20:5-13)। यह वह प्रार्थना है जो प्रभावशाली हुई और परमेश्वर ने अपना उत्तर यहजीएल के द्वारा दिया। जब राजा यहोशापात ने परमेश्वर के वचनों को सुना वह भूमि की ओर मुँह करके झुका। और यहूदा और यरूशलेम के सभी लोगों ने भी ऐसा ही किया, उन्होंने परमेश्वर की सराहना किया। मनुष्य के दृष्टिकोण से कहा जाए तो इस युद्ध की समस्त तैयारी अद्भुत दिख पड़ती है। यहोशापात का उसकी सेना को एकमात्र आव्हान परमेश्वर पर विश्वास और उसके वचन पर विश्वास करना था। सैनिकों के आगे-आगे गायक लोग परमेश्वर की स्तुति करते जा रहे थे। परमेश्वर ने उसके लोगों को कह दिया था कि जीत के लिये उन्हें लड़ना नहीं होगा। कितनी अद्भुत रीति से उसने अपनी प्रतिज्ञा को पूरी किया था। बिना तुरही फूंके बिना एक भी जान गवाएँ, यहोशापात और उसके लोगों ने उनके शत्रुओं नाश होते और घात होते देखा, और उन्हें इतनी बड़ी लूट मिली की उसे इकट्ठा करने में उन्हें तीन दिन लग गए। सचमुच परमेश्वर पर विश्वास करना और उसकी आज्ञा पालन करना, प्रतिफल लाता है। विजयघोष करते यरूशलेम लौटने के पहले यहोशापात और उसके लोग बराका नामक तराई में धन्यवाद की सभा के लिये रूके, यरूशलेम पहुँचने के बाद वे मंदिर गए और वहाँ प्रार्थना और स्तुति चढ़ाया। परमेश्वर के लोगों के द्वारा विश्वास के इस प्रगटीकरण का दूर तक होने वाले प्रभाव को देखें। जब आसापास के राज्यों ने सुना कि स्वयं परमेश्वर ही इस्राएल के शत्रुओं से लड़ा तो उनमें परमेश्वर के प्रति डर समा गया। इस प्रकार यहोशापात के राज्य में शांति स्थापित हो गई क्योंकि परमेश्वर ने उसको चारों ओर से विश्राम दिया। यदि यहोशापात का राज्य यहीं खत्म हो जाता तो आलोचना के लिये बहुत कम ही स्थान रह जाता। परंतु उसके जीवन की दो और घटनाएँ भी लिखी गई हैं - वे दो संधियाँ जो उसने अहाब के दुष्ट पुत्रों के साथ किया। पहली संधी व्यापार के लिये थी और दूसरी युद्ध के लिये, और इन दोनों बातों ने परमेश्वर को दुखी किया। लेकिन उसके पिता के समान ही, परमेश्वर ने उसे भी ग्रहण किया क्योंकि उसने अपने पाप का अंगीकार किया था। केवल ऐसे व्यक्ति के विषय ही कहा जा सकता है कि, "उसने वही किया जो परमेश्वर की दृष्टि में सही था।"
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