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सुलैमान का मंदिर राजाओं के वृतांत में सुलैमान का मंदिर मुख्य विषय है। 1 राजा में उसके निर्माण का विवरण लिखा गया है, जबकि 2 राजा में उसके विनाश का विवरण है। इस्राएल के इतिहास में हम तीन मंदिरों को देखते हैं। पहला, सुलैमान का मंदिर (जो ईसापूर्व वर्ष 960 में बनाया गया और 800 वर्ष तक बना रहा)। इस मंदिर का निर्माण कार्य मिस्त्र से निर्गमन के 480 वर्ष बाद शुरू किया गया ऐसा बताया जाता है। दूसरा मंदिर जरूबाब्बेल द्वारा (जो ईसापूर्व वर्ष 515 में बनाया गया और 500 वर्षों तक बना रहा) बनाया गया था, और तीसरा हेरोदेस का मंदिर (जो ईसापूर्व वर्ष 20 में बनाया गया और 90 वर्ष तक बना रहा) था। इस्राएल के जीवन में मंदिरों की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका क्यों थी? इसका एक अच्छा उत्तर मंदिर से पूर्व निर्मित मिलापवाले तंबू में पाया जाता है परमेश्वर ने मिलापवाले तंबू के प्रतीकों के माध्यम से स्वयं को और उसके लोगों के छुटकारे के कार्य को ज्यादा दिखाया है। एक महत्वपूर्ण सत्य यह था कि केवल उसे ही इस्राएल के जीवन का केंद्र होना चाहिये और इस्राएल को केवल उसी की आराधना और सेवा करना चाहिये। इस्राएल के समयसारिणी के अनुसार वह समय था जब मिलापवाले तंबू की जगह एक मंदिर बनाया जाए। दाऊद इस मंदिर को बनाना चाहता था परंतु इस्राएल देश को उसके शत्रुओं से छुटकारा दिलाने के लिये उसकी जवाबदारी सैन्य के प्रति ज्यादा थी। अब जब कि राज्य का विस्तार हो चुका था और आंतरिक एकता और शांति स्थापित हो चुकी थी, सुलैमान द्वारा इमारत बनाने का समय आ गया था। करीब-करीब उसके राजा बनते ही सुलैमान ने मंदिर बनाने की विस्तृत तैयारियाँ शुरू कर दिया था। सोर के राजा के साथ उसका आदान-प्रदान, 30000 लोगों से वसूला जानेवाला कर, कार्य की विस्तृत रूपरेखा की तैयारी, सामग्रियों का तैयार किया जाना और उन्हें मंदिर बनाने के स्थान पर लाना इन सब कार्यों के लिये कम से कम 3 वर्ष का समय लगा होगा, क्योंकि हम पढते हैं कि सुलैमान के शासन के चैथे वर्ष निर्माण का वास्तविक कार्य शुरू किया गया था। हमें यह भी नही भूलना चाहिये कि दाऊद ने भी परमेश्वर के भवन के निर्माण की बड़ी तैयारियाँ किया था। उसकी मृत्यु के पहले ही उसने काफी सोना, चांदी, बहुमूल्य पत्थर और संगमरमर इकट्ठा कर लिया था जो इमारत के निर्माण के लिये आवश्यक थीं। मंदिर 90 फुट लंबा, 30 फुट चैड़ा और 45 फुट ऊँचा था। यह दो भागों में विभक्त था। पहला कमरा पवित्रस्थान था जो 60 फुट लंबा, 30 फुट चैड़ा और 45 फुट ऊँचा था। दूसरा कमरा भीतरी पवित्रस्थान था, जो 30 फुट लंबा, 30 फुट चैड़ा, और 30 फुट उँचा था। पूर्व में ओसारा 30 फुट और लंबा था और जमीन से 15 फुट ऊँचा था। मंदिर के उत्तर, पश्चिम और दक्षिण बाजुओं में कमरों की तीन मंजिले थीं जो याजकों के लिये थी। ये मंदिर की दीवाल के विपरीत थे। मंदिर के लिये सभी तख्ते और पत्थर उचित नाप में यरूशलेम में लाने से पहले खदान में ही बना कर तैयार कर लिये गए थे ताकि उन्हें लोहे के औजारों के उपयोग किए बिना ही जोड़ा जा सके। इस प्रकार मंदिर का बांधकाम बिना किसी शोरगुल के पूरा किया गया ठीक वैसे ही जैसे आज परमेश्वर के जीवते मंदिर का निर्माण किया जाता है। इमारत का भीतरी भाग देवदारू के तख्तों से बना था जिस पर शुद्ध सोना मढ़ा हुआ था। भीतरी पवित्रस्थान में दो करूब बने थे जो सोने से मढे़ थे और संदूक के दोनों ओर खड़े थे। उनके फेले हुए पंख एक दीवाल से दूसरी दीवाल तक थे। ये दया के सिंहासन वाले करूब के समान नहीं थे। मंदिर के भीतर कुछ और नहीं केवल सोना ही दिख पड़ता था। भीतरी पवित्र स्थान में प्रवेश के लिये सुलैमान ने जैतून की लकड़ी के पाँच बाजूवाले दोहरे दरवाजे बनाया। इन दरवाजों को करूबों, खजूर के पेड़ों खुले फूलों की आकृतियाँ तराशकर बनाया गया था और सोने से मढ़ा गया था। कमरों को परदों से विभाजित किया गया था जो भीतरी पवित्र स्थान के दरवाजों पर टंगे थे। मंदिर के सामने याजकों का भीतरी आंगन था। उसके बीच में एक निचली दीवार थी और बाहरी आंगन था। यह दीवाल तराशे गये पत्थरों की तीन कतारों से बनी थी और एक कतार देवदारू के खंबों से बनी थी। भीतरी आंगन में बलि चढ़ाने के लिये पीतल की वेदियाँ बनी थी, एक ढाला हुआ हौज (एक बड़ा हौज 1 राजा 7:23-26) जिसका शुद्धिकरण के लिये याजकों द्वारा उपयोग किया जाता था। इसके अलावा इस उद्देश्य के लिये दस और छोटे हौज बनाए गये थे। बाहरी आंगन लोगों के लिये था। मंदिर न केवल आराधना का स्थान था, परंतु सर्वशक्तिमान का वास्तविक निवास स्थान भी था। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि सुलैमान ने कहा कि यह महान और अद्भुत होगा, यहाँ तक कि दाऊद ने भी कहा था, जो भवन यहोवा के लिये बनाना है, उसे अत्यंत तेजोमय और सब देशों में प्रसिद्ध और शोभायमान होना चाहिये।" (1 इतिहास 22:5)। सुलैमान के मंदिर की कुछ मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं: 1) मंदिर का निर्माण कार्य ईसापूर्व वर्ष 966 में शुरू किया गया था। मंदिर को बनाने में सात वर्ष लगे। 2) इस इमारत की रूपरेखा दाऊद को परमेश्वर के द्वारा दी गई थी (1 इतिहास 28:19) और दाऊद ने उसे सुलैमान को दिया था (1 इतिहास 28:11-12,2 इतिहास 3:3)। 3) अपने संपूर्ण आकार में मंदिर मिलापवाले तंबू के समान ही था। मंदिर और तंबू दोनों में दो समान मुख्य क्षेत्र थे, जिसे पवित्रस्थान और अति पवित्र स्थान या अति पवित्र कहा जाता था। 4) मंदिर के सामने के दो खंबे यकिन "वही स्थिर करेगा" और बोअज "उसी में सामर्थ" थे। 5) पात्र (1 राजा 7:48) भी उन्हीं के समान थे जो तंबू में रखे गये थे, परंतु आकर और गिनती में अंतर था। तंबू में एक हौज था, एक धूपदानी और पवित्र रोटी की एक मेज थी। मंदिर के लिये बताए गये सभी बर्तन बड़े पैमाने पर बनाए गए थे और वे तंबू में रखे बर्तनों की संख्या से ज्यादा थे। 6) यद्यपि सुलैमान ने पीतल की नई वेदी, नए धूपदान, मेजें, हौज, बर्तन, पावडे,और हुक्स मंदिर के लिये बनवाए थे, लेकिन उसने वाचा का संदूक नया नहीं बनाया। वाचा का वह संदूक जिसे मंदिर में लाया गया था वही था जो सीनै पर्वत पर था। 7) सुलैमान का अपना घर कई घरों से मिलकर बना था (1 राजा 7:1-12); लबानोन के जंगल का घर (ऐसा इसलिये कहा जाता है क्योंकि देवदारू की लकडियाँ लबानोन से ही आती थीं) खंबों का कमरा, सिंहासन का कमरा (न्याय का कमरा) उसका व्यक्तिगत शाही आंगन, और उसकी पत्नी के लिये महल। मंदिर की अर्पण विधि अविस्मरणीय घटना थी। इस पवित्र विधि की बारीकियाँ कितनी प्रभावशाली रही होगी। सुलैमान ने इस्राएल के सभी बुजुर्गों और प्रधानों को प्रभु के संदूक को मंदिर में लाने के लिय बुलवाया था। राजा और बुजुर्गों द्वारा चढ़ाए गए बलिदानों को बहुतायात के कारण गिना नहीं जा सकता था। श्वेत वस्त्र पहने याजक, गायक और संगीतज्ञों ने परमेश्वर की स्तुति के गीत गाए। और फिर जब सभी लोगों ने मंदिर की ओर देखा और प्रत्येक हृदय से निकलनेवाली स्तुति ऊपर उठी तब स्वयं परमेश्वर उतर आया और मंदिर में समा गया, बादलों में अपनी उपस्थिति प्रगट किया और उस महिमा से जो पूरे भवन में फैल गई थी। इस बात ने इस्राएल देश के इतिहास को रचा जब राजा, याजक, अगुवे और लोगों को एक मन को उनके मध्य उनके कर्ता छुड़ानेहारे और महाराजा का स्वागत किया। जिस मंदिर को सुलैमान ने बनाया था वह पहली विशाल इमारत थी जो किसी इस्राएली शासक ने बनाया था। मंदिर के निर्माण की निगरानी सुलैमान की जितनी बड़ी जिम्मेदारी थी, उससे बढकर लोगों के प्रति उसकी आत्मिक अगुवाई की जवाबदारी थी। परमेश्वर ने कहा कि इस्राएल की संतानों के मध्य उसका डेरा सुलैमान की विश्वासयोग्यता पर आधारित था। परंतु सुलैमान जैसा महान और बुद्धिमान वह था, परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्यता में चूक गया, और जिस मूर्तिपूजा को उसने बाद में प्रचलित किया उसने सारे देश को परमेश्वर के विषय अविश्वासयोग्य बना दिया।
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