Class 7, Lesson 40: इब्रानियों का सर्वेक्षण

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इब्रानियों की पत्री का सर्वेक्षण लेखक इस पत्री का लेखक अपना नाम उजागर नहीं करता। लेकिन वह उसके मूल पाठकों द्वारा अच्छी तरह परिचित था। वर्षों से कई लेखक सुझाए गए हैं जिसमें पौलुस का नाम अक्सर आता है। तरतुलियन ने इब्रानियों 13:22 के आधार पर बरनबास का नाम सुझाया जो कहती है, "उपदेश की बातों को सह लो।" बेशक, बरनबास नाम का अर्थ "उपदेश का पुत्र" होता है।लेकिन इस प्रश्न को किसी मुहावरे के आधार पर सुलझाया नहीं जा सकता। शैली के आधार पर कुछ लोगों की राय है कि पौलुस ने इस पत्री को इब्री में लिखा और लूका ने यूनानी भाषा में अनुवाद किया। इसमें भी विश्वसनीयता की कमी है क्योंकि इब्री भाषा में मूल पत्री कही पाई नहीं गई है। लूथर जो महान सुधारक थे, उनका विश्वास था कि इसका लेखक अपुल्लोस था। शैली और पत्र की सामग्री इस सिकंदरिया वासी के अनुरूप है जो वचन में सामर्थी था (प्रेरितों के काम 18:24)। फिर भी वास्तविकता यह है कि किसी के भी द्वारा निर्णायक सबूत नहीं दिया जा सकता। चर्च के फादर ओरिजेन ने कहा, "इब्रानियों को पत्र किसने लिखा, केवल परमेश्वर ही निश्चित रूप से जानता है। चूँकि लेखक, पत्र की सामग्री को प्रभावित नहीं करता, हमें इस विषय चर्चा नहीं करना चाहिये। प्रथम प्राप्तकर्ता पूरी संभावना है कि प्रथम प्राप्तकर्ता रोम के विश्वासी थे जिन्हें नेरो के अधीन क्लेश से गुजरना पड़ा था। तारीख स्पष्ट है कि पत्री उस समय लिखी गई थी जब यरूशलेम का मंदिर तब भी विद्यमान था (इब्रानियों 10:11)। यरूशलेम और मंदिर का विनाश रोमियों द्वारा सन 70 में किया गया था। इसलिये यह पत्री सन 70 से पहले लिखी गई थी। संभव है सन 65 में लिखी गई थी। पत्र का उद्देश्य इब्री मसीहियों ने अक्सर स्वयं से पूछा, "मसीहत में मंदिर, बलिदानों, याजकीय सेवा आदि का क्या संबंध है। क्या उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है? अंततः वे परमेश्वर की योजना के भाग हैं। तो हम उनके साथ क्या करें? इसलिये लेखक इन प्रश्नों का उत्तर इस गूढ़ निबंध या लेख में देता है।वास्तव में यह निबंध के समान शुरू होता है और पत्र के समान खत्म होता है। मुख्य विषय : यद्यपि लेखक और लिखने की तारीख रहस्य ही हैं, पत्री का संदेश स्पष्ट है। इब्रानियों का बुनियादी विषय "बेहतर" शब्द के उपयोग में पाया जाता है (1:4; 6:9; 7:7; 19,22; 8:6; 9:23; 10:34; 11:16; 35,40; 12:24)। "सिद्ध" और "स्वर्गीय" शब्द भी मसीह के व्यक्तित्व और कार्य में उसकी सर्वोच्चता के वर्णन में प्रमुख है। वह बेहतर प्रगटीकरण, स्थिति, याजकपन, वाचा, बलिदान और शक्ति प्रस्तुत करता है। दूसरे शब्दों में लेखक कोशिश करता है कि उसके पाठक मसीहत को न छोड़ दे और पुराने यहूदी परंपरा में न लौट जाएँ। तो आइये हम देखें कि यह पत्र हमारे सर्वोच्च उद्धारकर्ता के विषय क्या कहती है। इबानियों का ढांचा मसीह की सर्वोच्चता के विषय को थामे हुए हम इस पत्री को इस तरह विभाजित कर सकते हैं। व्यक्ति के रूप में यीशु मसीह की सर्वोच्चता, (1:1-4:13); हमारे महायाजक के रूप में यीशु मसीह की सर्वोच्चता (4:14-10:18); मसीही जीवन के मापदंड के रूप में यीशु मसीह की सर्वोच्चता (10:19-13:25)। यीशु मसीह: सर्वोच्च व्यक्ति (1:1-4:13) भविष्यवक्ताओं से बेहतर बिना किसी अभिवादन या परिचय के लेखक तुरंत अपने विषय पर आ जाता हैः यीशु मसीह की समझ से परे सर्वोच्चता। भविष्यवक्ता परमेश्वर के ईश्वरीय प्रेरित प्रवक्ता थे। फिर भी उनकी सेवकाई अधूरी और विभक्त थी। प्रत्येक को किसी प्रमाण में प्रगटीकरण मिला था, परंतु हर मामले में वह अधूरा था। उदाहरण के लिये यशायाह को प्रगट किया गया था कि यीशु एक कुँवारी से जन्म लेगा (यशायाह 7:14)। उसके जन्म का स्थान मीका को प्रगट किया गया था (मीका 5:2) जबकि उसकी मृत्यु का तरीका दाऊद को प्रगट किया गया था (भजन 22:16)। भविष्यद्वक्ता यद्यपि वे परमेश्वर का वचन बोलते थे, वे स्वयं वचन के अग्रघोषक थे; जिसने सब कुछ बनाया और सब का वारिस हैं (पद 2)। कोई भी भविष्यद्वक्ता यह दावा नहीं कर सकता कि उसने कुछ सृष्टि किया था उनमें से किसी चीज का वह वारिस है। न ही भविष्यवक्ता कह सकते थे कि वे "परमेश्वर की महिमा के प्रकाश और उसके तत्व की छाप हैं" (पद 3)। यद्यपि उन्होंने परमेश्वर के लिये बोला, यीशु शरीर में परमेश्वर था। और वह उसके सामर्थ के वचन से सब कुछ संभालता है" (पद 3)। परमेश्वर के अंतिम प्रगटीकरण के अनुसार वह सभी भविष्यद्वक्ताओं के ऊपर है। स्वर्गदूतों से बेहतर परमेश्वर होने के नाते केवल यीशु ही पाप के प्रायश्चित हेतु मर सकता था, फिर परमेश्वर के सिंहासन तक उठाए जाकर दाहिने हाथ पर बैठ सकता था। (पद 3)। पुराने नियम के कई अनुच्छेदों को उद्धत करने के द्वारा लेखक बताता है कि अन्य स्वर्गदूतों के विपरीत, परमेश्वर का एकलौता पुत्र था (पद 5)। स्वर्गदूत उसकी आराधना करते हैं और उसके अधीन हैं (पद 6-7)। वह अनंत, अपरिवर्तनीय परमेश्वर है जो सब पर प्रभुता करता है (पद 8-13)। वास्तव में स्वर्गदूत उनके पास सेवा करने भेजे जाते हैं जो मसीह द्वारा छुडाए गए हैं (पद 14)। प्रायश्चित के पुत्र और सर्व सामर्थी राजा के रूप में वह सभी स्वर्गदूतों के उपर है। और हमारे उद्धारकर्ता तथा रक्षक के रूप में उसकी महिमा सबसे उपर है। मूसा से बेहतर फिर लेखक यीशु और मूसा के बीच तुलना करता है। मूसा परमेश्वर के घर में एक दास के रूप में विश्वासयोग्य था (3:2)। परंतु मसीह परमेश्वर के घर के उपर पुत्र के समान विश्वासयोग्य था (पद 3-6 क)। हममें से जो कोई विश्वास से मसीह को स्वीकार करता है उसके घर और कलीसिया के अंग है (पद 6ख)। और उस पर विश्वास करने तथा उसके संग चलने के द्वारा, (पद 7-19) हम उसके विश्राम - अनंतजीवन में प्रवेश करते हैं (अध्याय 4)। यीशु मसीह: बेहतर याजक (4:14-10:18) यीशु मसीह वह महायाजक है जो हमारे लिये मध्यस्थी करता है। लेखक एक बड़ा भाग, हमारे महायाजक के रूप में यीशु की सेवकाई के अन्वेक्षण के लिये समर्पित करता है। संसारिक याजकों के विपरीत जिनकी सेवकाई अस्थायी थी, यीशु हमारा अनंतकालीन मध्यस्थ है और पिता के सामने वकील है, उसकी वाचा नई और बेहतर है। और उसका बलिदान शुद्ध, सिद्ध और हमेशा के लिये है। पुराने याजक, हारून के वंशज अति पवित्र के पास मिलापवाले तंबु में जाते थे, ताकि परमेश्वर की उपस्थित में जा सके। परंतु यीशु जो "हमारा महायाजक" है (4:14) "स्वर्ग से होकर गया" जब उसका स्वर्गारोहण हुआ और हमेशा परमेश्वर की उपस्थिति में रहता है। और पुराने समय के याजकों के विपरीत "हमारे समान सभी बातों में परखा गया, परंतु निर्दोष पाया गया (पद 15) इसलिये वह परीक्षा में हमारी सहायता के लिये तैयार रहता है। वह अपने पाठकों को यकीन दिलाता है कि अब्राहम के समान वे आत्मिक जीवन में आगे बढ़ सकते हैं, परमेश्वर की ठोस प्रतिज्ञाओं पर विश्वास कर सकते हैं और यीशु की सिद्ध याजकीय सेवा पर विश्वास कर सकते हैं जो मलिकिसिदक की रीति पर हमेशा के लिये हमारा महायाजक है (पद 20)। इसका मतलब यह हुआ कि यीशु हारून की रीति से महायाजक नहीं परंतु मलिकिसिदक की रीति पर महायाजक था (भजन 110:4)। मलिकिसिदक कौन था जिससे यीशु की तुलना की जाती है? उसके नाम का अर्थ है "धार्मिकता का राजा।" वह शालेम का राजा था जिसने अब्राहम को आशीष दिया और अब्राहम के युद्ध जीतने के बाद उसे दशमांश दिया था (उत्पत्ति 14:18-20) मलिकिसिदक के पूर्वजों के विषय वचन चुप्पी साधे है, और यह लेखक का विचार है। राजा-याजक ने अपनी स्थिति वंशावली से नहीं परंतु ईश्वरीय नियुक्ति द्वारा प्राप्त किया था। यही बात यीशु के विषय भी ऐसी ही है। यीशु यहूदा के गोत्र से आया, लेवियों के याजकीय वंश से नहीं। यह यीशु के याजकपन के ईश्वरीय स्वभाव को दिखाता है और उस नए और बेहतर वाचा को भी जिसकी वह मध्यस्थी करता है। मसीह का चढ़ावा पुराने नियम के बलिदानों से बेहतर वे याजक जो व्यवस्था अंतर्गत बलि चढ़ाया करते थे आखिरकार मर गए। लेकिन यीशु मसीह हमेशा जीवित है और उसके पास स्थायी याजकपन है। वह हमें बचाता है और पिता के पास अचूक मध्यस्थी के द्वारा हमें सुरक्षित रखता है। उसने एक बार बलिदान चढ़ाया तो सबके लिये और हमेशा के लिये पर्याप्त है। इसलिये जितने लोग मसीह में हैं वे नई और व्यवस्था से बेहतर वाचा के भागीदार हैं (पद 28)। 8-10 अध्यायों में लेखक समझाता है कि संपूर्ण पुराने नियम की याजकीय प्रणाली, वास्तविकता की मात्र छाया थी। याजकगण अतिपवित्र स्थान में "दूसरे पर्दे" के बाद पहुँच सकते थे (9:3), वह भी केवल जानवरों के लहू के बलिदान के द्वारा। मसीह जो हमारा स्वर्गीय याजक है और अंतिम बलिदान है, उसने हमें उसके एक बारगी प्रायश्चित की मृत्यु के द्वारा हमें अति पवित्र स्थान में प्रवेश की अनुमति दिया है। यीशु मसीह: जीवन का बेहतर स्त्रोत (10:19-13:25) "इसलिये" शब्द के साथ (10:19) अब लेखक अभी बताए गए सच्चाईयों के लागूकरण के विषय कहता है। चूँकि यीशु ने स्वर्ग के परमेश्वर के पास जाने का मार्ग खोल दिया है, पाठक उसके पास जा सकते हैं, यह जानकर कि उन्हें मेम्ने के लहू द्वारा पापों से धोकर शुद्ध किया गया है। वे अपने विश्वास में स्थिर रह सकते हैं यह जानकर कि यीशु उन्हें निराश नहीं करेगा (पद 23)। बीते समयों में पाठकों ने क्लेश के दौरान अपने विश्वास की रक्षा किया था (पद 32-39), इसलिये अब उन्हें मजबूत रहना चाहिये और "पीछे नहीं हटना चाहिये" (पद 39) जब भी उन्हें यहूदीवाद में वापस जाने की परीक्षा का सामना करना पड़े। पुराने जीवन में वापस जाने की परीक्षा के साथ पाठकों को विश्वास के विषय ताजी शिक्षा की आवश्यकता थी। लेखक इसे "आशा की हुई वस्तुओं का निश्चय, और अनदेखी वस्तुओं का प्रमाण" परिभाषित करता है।" (11:1)। सच्चे विश्वास के परिणामों को समझाने के लिये लेखक कुछ पुराने और नए नियम के विश्वासियों के विषय बताता है कि उन्होंने आशीष देने, पूरा करने, रक्षा करने, अगुवाई करने, जीतने और जीवन देने के लिय किस तरह परमेश्वर पर विश्वास किया - यहाँ तक कि सबसे खराब परिस्थितियों में भी। आगे लेखक उसक पाठकों को निर्देश देता है कि वे उनकी दृष्टि "विश्वास के कर्ता और सिद्ध करनेवाले यीशु" पर लगाएँ (12:2), क्रूस उठाने के बाद अब स्वर्ग में विराजमान वह हमारे विश्वास का स्त्रोत और अच्छा उदाहरण है। (पद 2-4) इस पत्री के पाठक ऐसा मान रहें होगें कि उन्होंने जो क्लेश और सताव भोगा है वे सब परमेश्वर के क्रोध के चिन्ह थे। लेकिन लेखक उन्हें तकलीफों को परमेश्वर के प्रेम के रूप में देखने को उत्साहित करता है। क्योंकि परमेश्वर उन्हें ताड़ना देता है जिनसे वह प्रेम करता है ताकि वे परिपक्व हो जाएँ (पद 4-11)। वह उन्हें विजयी जीवन जीने का आग्रह करता है। हम मसीही जीवन इसलिये जी सकते हैं कयोंकि भरपूरी और पुरानी वाचा की सीमित पहुँच नई महिमा द्वारा बदल दी गई है (पद 18-24)। लेकिन नई वाचा का परमेश्वर अब भी वही परमेश्वर है, और वह उन्हें दंड देगा जो उसका तिरस्कार करते हैं। क्योंकि हमारा परमेश्वर"भस्म करने वाली आग" है। (पद 29) अपने पत्र को बंद करते समय लेखक कहता है, "भाईचारे की प्रीति बनी रहे" (13:1)। परदेशियों की पहुनाई करने, कैदियों की सुधि लेने, विवाह को उच्च आदर की बात समझने, संतुष्ट रहने के द्वारा वे मसीह के प्रेम को प्रगट कर सकते थे (पद 1-6)। वह परमेश्वर का अनुग्रह ही है, जो उसके प्रायश्चित के बलिदान के द्वारा - हमें उसमें सुरक्षित रखता है, हमारी धार्मिकता के काम नहीं। इसलिये, उसके प्रति हमारी अनुक्रिया पशुओं की बलि चढ़ाना नहीं परंतु "स्तुति का बलिदान" होना चाहिये, अर्थात धन्यवाद देना, भलाई करना, और दूसरों के साथ बाँटना (पद 15-16)। अपने पाठकों के आग्रह करने के बाद कि वे उनके अगुवों के अधीन रहें, और उसके अपने जीवन और आचरण के लिये प्रार्थना विनती रखने के बाद लेखक इस पत्री को आशीष के साथ के वचनों के साथ बंद करता है जो इस पत्री का सारांश है: "अब शांतिदाता परमेश्वर, जो हमारे प्रभु यीशु जो भेड़ो का महान रखवाला है सनातन वाचा के लहू के गुण से मरे हुओं में से जिलाकर ले आया, तुम्हें हर एक भली बात में सिद्ध करे, जिससे तुम उसकी इच्छा पूरी करो, और जो कुछ उसको भाता है उसे यीशु मसीह के द्वारा हम में उत्पन्न करे। उसी की महिमा युगानुयुग होती रहे। आमीन...तुम सब पर अनुग्रह होता रहे। (पद 20-25)।

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