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फिलेमोन और फिलिप्पियों की पत्री का सर्वेक्षण क) फिलेमोन का सर्वेक्षण: अनुग्रह और क्षमा का आग्रह नए नियम में पौलुस द्वारा लिखी गई 14 पत्रियों में (इब्रानियों को मिलाकर) फिलेमोन सबसे छोटी पत्री है जिसमें केवल 25 पद हैं। यह एक पोस्टकार्ड के समान है। परंतु पत्री की लंबाई आपको धोखा न देने पाए। यद्यपि आकार में वह छोटी है, सच्चाई में लंबी है। रोम से लिखते समय, पौलुस ने कुलुस्से की कलीसिया में पौलुस ने अपने एक मित्र को लिखा जिसका नाम फिलेमोन था। पौलुस के लिखने का उद्देश्य एक टूटे हुए संबंध को पुनः बहाल करना था। उसने फिलेमोन से आग्रह किया कि वह उसके भागे हुए दास को पुनः रख ले जिसका नाम उनेसिमुस था, जो पौलुस की सेवकाई द्वारा मसीही बन गया था। क्षमा के इस चित्रण के पोस्टकार्ड में सबके लिए एक संदेश है - दया दिखाने के द्वारा दूसरा मौका देने का संदेश। सामाजिक सीमाओं को खत्म करने के लिये मसीह में समानता और सुसमाचार की सामर्थ का संदेश। इन सब के उपर अनुग्रह के विषय संदेश है। पाश्र्वभूमिका: पौलुस रोम में नजरबंद था, और कैसर के सामने मुकद्दमे की पेशी की बाट जोह रहा था। यद्यपि वह सांकलों से बंधा था फिर भी उसे उसके पास आने वालों के साथ सुसमाचार बाँटने की स्वतंत्रता थी जिनमें उसके पहरेदार सिपाही भी शामिल थे और उनेसिमुस नामक एक जवान दास भी था। उनेसिमुस मात्र दास नहीं था, परंतु वह एक भगोड़ा और चोर भी था। ऐसा दिख पड़ता है कि फिलेमोन उसके स्वामी के पास से भागने से पहले, उसने उसका कुछ चुराया भी था, संभवतः यात्रा के लिये पैसे चुराया था। सौभाग्यवश परमेश्वर के पास उसके लिये स्वतंत्रता थी जो उसकी बाट जोह रही थी जो किसी भी बात से बढ़कर उँची और बड़ी थी, जिसके विषय उसने कभी स्वप्न में भी न सोचा था। परमेश्वर ने उनेसिमुस को पौलुस तक लाने का प्रबंध किया जिसने उसका परिचय उद्धारकर्ता से कराया। जब उनेसिमुस ने विश्वास किया डर और लज्जा की उसकी बेड़ियाँ टूट गई। मसीह में इस भगोड़े ने क्षमा प्राप्त किया। अब वह सचमुच स्वतंत्र था। मसीह में स्वतंत्रता का अर्थ संसार के सभी कर्ज और जवाबदारियों से छुटकारा नहीं होता। उनेसिमुस मसीह की दृष्टि में धर्मी बनाया गया था, परंतु पौलुस जानता था कि अब उसे फिलेमोन के साथ भी संबंध ठीक करना होगा। अपने स्वामी के पास लौटने का अर्थ दो जोखिम भरे मामलों का सामना करना था। (1) पहला संपत्ति का नुकसान था। जब उनेसिमुस भागा था तो उसके द्वारा चोरी की गई वस्तुओं और उसी को खरीदने की कीमत जो अदा की गई थी, उसका नुकसान स्वामी को हुआ था। इस प्रकार उनेसिमुस ने न केवल टूटे संबंध छोड़ आया था परंतु उस पर कर्ज भी था जो अदा नहीं किया गया था। (2) दूसरा विषय स्वामी का क्रोध भी था। मसीह ने उनेसिमुस को क्षमा कर दिया था...परंतु क्या फिलेमोन करेगा? क्या वह मसीही स्वामी उस पश्चातापी दास को एक विश्वासी भाई के रूप में स्वीकार करेगा? यह मसीही संगति और सुसमाचार की सामर्थ की सामाजिक दीवारों को तोड़ने की परीक्षा थी। इन दो मुद्दों को लेकर पौलुस फिलेमोन को पत्र लिखने बैठा कि वह उनेसिमुस को स्वतंत्र कर दे। जब हम पौलुस के पोस्टकार्ड को देखते हैं तो चार बातें सामने आती हैं: अभिवादन, प्रशंसा, आग्रह और प्रतिज्ञा। अभिवादन: (पद 1-3) पौलुस अपना पत्र नम्र और स्नेहपूर्ण अभिवादन के साथ शुरू करता है। वह स्वयं को "मसीह यीशु का कैदी" बताता है, बजाए एक प्रेरित होने के। उसने मसीह के लिये अपने जीवन को समर्पित किया है जैसे फिलेमोन ने जो कुलुस्से में रहनेवाले पौलुस द्वारा परिवर्तित लोगों में से एक है। इतने बड़े घर की मिल्कियत के साथ जिसमें आराधना के लिये भी स्थान था और एक दास के साथ, शायद फिलेमोन समृद्ध व्यक्ति था। अफफिया (संभवतः उसकी पत्नी) और अरखिप्पुस (संभवतः उसका पुत्र) भी सेवकाई में सहभागी थे। फिर पौलुस परमेश्वर से कहता है कि वह फिलेमोन पर "अनुग्रह" और "शांति" दिखाए। वह यह आग्रह परमेश्वर से करता है ताकि वह उसके मित्र को उनेसिमुस के साथ अनुग्रह और शांति की आत्मा का प्रदर्शन करे। प्रशंसा (पद 4-7) अपना आग्रह रखने के पहले पौलुस फिलेमोन के प्रति अपना आभार प्रदर्शन करता है। उसके साथ वह अच्छे व्यवहार का आधार बनाता है इससे पहले कि वह उनेसिमुस की चर्चा शुरू करे, वह चापलूसी के एक शब्द का भी उपयोग नहीं करता। उसका उद्देश्य मसीह में उसके भाई को प्रोत्साहित करना था और उसी समय उसे उच्च नैतिकता का आव्हान देना था - वह स्तर जो फिलेमोन उसके प्रेमी व्यवहार में प्रदर्शित कर रहा था। आग्रह (पद 8-17) अब प्रेम के आधार पर पौलुस फिलेमोन से आग्रह करता है। फिलेमोन के लिये उनेसिमुस नाम ने बेइमानी और बर्बादी का कटु अनुभव छोड़ गया था। पौलुस यहाँ पहली बार उसे यह कहकर प्रस्तुत करता है, "मेरा पुत्र जो मुझसे मेरी कैद में जन्मा है।" उनेसिमुस नाम का अर्थ "उपयोगी फायदेमंद" होता है। पौलुस उसके नाम का अर्थ का उपयोग करते हुए, मसीह में नए जन्म के कारण उनेसिमुस में आए आमूल परिवर्तन का उल्लेख करता है। फिलेमोन के मन में जो एक चित्रण था वह पुराने निरूपयोगी उनेसिमुस का था - एक भगोड़े और चोर उनेसिमुस का चित्रण। लेकिन एक अंतिम चित्रण जो पौलुस प्रस्तुत करता है, आनेवाले पदों में वह उनेसिमुस को एक उपयोगी व्यक्ति - एक सेवक और सहभागी के रूप में प्रस्तुत करता है। प्रतिज्ञा (पद 18-25) पौलुस से कम किसी ने भी सहायता की मांग नहीं किया था। परंतु अब वह एक मांग करता है अपने लिये नहीं, परंतु उनेसिमुस के लिये, मसीह के लिये और कलीसिया के लिये। पौलुस शब्दों का दूसरी बार भिन्न उपयोग करता है। जैसे उपयोगी होना उनेसिमुस के नाम का अर्थ है, "फायदेमंद", वह कहता है, "मैं उनेसिमुस को वापस भेजकर तेरा लाभ करवा रहा हूँ, जिसका हर कर्ज माफ किया गया है। अब बदले में उसे क्षमा करने की तेरी इच्छा के द्वारा तू मुझे लाभ पहुँचा। फिर पौलुस यकीन के शब्द कहता है कि फिलेमोन ठीक ही करेगा। यह रोम में उसके साथ के अन्य विश्वासियों की ओर से भी शुभकामनाएँ भेजता है। अंतिम शब्दों में, वह फिलेमोन को यह आशीर्वाद देता है: "प्रभु यीशु मसीह का अनुग्रह तुम्हारी आत्मा पर होता रहे।" अनुग्रह। दास हो या स्वतंत्र, अमीर हो या गरीब, कमजोर हो या सामर्थी मसीह का अनुग्रह सब कुछ समान कर देता है ताकि जो कोई उसे ग्रहण करता है, परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सके। यदि ऐसा वरदान हमें मिल जाए तो आज पौलुस कहा होता कि हम इसे दूसरों तक कैसे पहुँचा सकते हैं? ख) फिलिप्पियों: फिलिप्पियों कीपुस्तक प्रेरित पौलुस की ओर से फिलिप्पी के भाइयों कोधन्यवादी संदेश है जो उनकी सहायता के विषय है और वह इस अवसर का उपयोग कुछ निर्देश देने के लिये भी करता है। वह उनके क्लेश में उन्हें प्रोत्साहन देता है। वह उन्हें 'स्थिर रहने' और आनंद करने के लिये कहता है। वह उन्हें उन शत्रुओं के विषय भी चेतावनी देता है जो बड़ी बारीकी से कलीसिया में घुस गए हैं। एक और कारण जो पौलुस ने लिखा वह कलीसिया की एकता को मजबूत बनाने के लिये था। वह इन सभी निर्देशों को एक केंद्रीय विचार के इर्द-गिर्द ही रखता है, अर्थात मसीह में आनंद। दूसरे शब्दों में केवल मसीह में ही वास्तविक एकता और आनंद संभव है। नम्रता और सेवा के हमारे आदर्श के रूप में मसीह के साथ हम उद्देश्य की एकरूपता, नीति, लक्ष्य और श्रम का आनंद ले सकते हैं - एक सत्य जिसे पौलुस अपने ही जीवन से समझाता है। फिलिप्पियों काप्रत्येक अध्याय मसीह काएक भिन्न पहलू प्रगट करती है। अध्याय 1 में वह मेरा जीवन है, अध्याय 2 में वह मेरा आदर्श हैं, अध्याय 3 में वह मेरा लक्ष्य है, और अध्याय 4 में वह मेरा संतोष है। हमारे जीवन को मसीह पर केंद्रित करने के द्वारा हम एक आनंद को अनुभव कर सकते हैं जो हमारे आसपास के लोगों के जीवन को प्रभावित करता है और एकता, प्रेम और आशा लाता है। फिलिप्पियों की पत्री का यही संदेश है। यह पत्री एक कैदी - पौलुस के द्वारा लिखी गई थी जो रोम में नजरबंद था (प्रेरितों के काम 28:16,30; 1:12-14)। उसकी कलाई एक रोमी सुरक्षाकर्मी से हमेशा सांकल से बंधी थी। तब भी कोई भी बात उसे फिलिप्पी की कलीसिया के विषय मसीह द्वारा दिये गए आनंद से बांधकर वंचित नहीं कर सकी थी। फिलिप्पियों का समय : ईसा पूर्व 358 वे वर्ष में मकिदुनिया के राजा फिलिप (सिकंदर महान का पिता) ने इस शहर पर कब्जा किया और उसका विस्तार किया और उसका नाम बदलकर फिलिप्पी रखा। बाद में रोमियों ने उस पर कब्जा कर लिया और उसे रोमी बस्ती में बदल दिया। इस बस्ती के नागरिक रोम के नागरिक कहलाते थे, और उन्हें कई विशेष सुविधाएँ उपलब्ध थीं। चूँकि यह व्यवसायिक केंद्र नहीं था, वहाँ आराधनालय के लिये पर्याप्त यहूदी नहीं थे जिस समय पौलुस वहाँ पहुँचा था (प्रेरितों के काम 16:13)। पौलुस की दूसरी मिश्नरी यात्रा के दौरान पौलुस की "मकिदुनिया की बुलाहट" ने उसकी सेवकाई को फिलिप्पी तक ले गई जहाँ लुदिया और अन्य लोगों का परिवर्तन हुआ। पौलुस और सिलास को पीटा गया और उन्हें बंदी बनाया गया, परंतु इसका परिणाम फिलिप्पी दरोगा का परिवर्तन हुआ। एक रोमी नागरिक को मुकदमा चलाए बिना उसे मारने-पीटने के कारण हाकिमों की स्थिति खतरे में पड़ गई थी। पौलुस ने उसकी तीसरी मिश्नरी यात्रा में फिर से फिलिप्पी को भेंट दिया (प्रेरितों.20:1,6)। जब उन्होंने उसके रोमी हिरासत के विषय सुना तो फिलिप्पी कलीसिया ने इपफ्रुदीतुस के हाथ से उसे आर्थिक सहायता भेजा (4:18); इसी तरीकेसे उन्होंने उसकी दो बार से अधिक और भी मदद किया था (4:16)। रोम पहुँचने के बार इपफ्रुदीतुस बीमारी के करीब-करीब मर ही चुका था। उसके अच्छे हो जाने के बाद पौलुस ने इस पत्र को उसके साथ फिलिप्पी भेजा। पुस्तक का सर्वेक्षण: मसीह के लिए जीने का आनंद (अध्याय 1) पहले अध्याय में पौलुस अपने ही अनुभव से जो उसे बंदीगृह मे आया था, समझाता है कि कठिन परिस्थितियों में भी मसीह में आनंद किस तरह संभव है। मसीह के लिये जीना आनंद का रहस्य है। वह लिखता है, "मेरे लिए जीना मसीह और मरना लाभ है।" उसके उदाहरण के प्रकाश में पौलुस उन्हें आव्हान देता है, "तुम्हारा चाल-चलन मसीह के सुसमाचार के योग्य हो।" (पद 27 क) एकता में मसीह की सेवा का आनंद (अध्याय 2) दूसरे अध्याय में पौलुस हमसे आग्रह करता है कि हम दूसरे विश्वासियों के साथ एकता बनाने में आनंद पाएँ। वह उन्हें नम्रता की भावना का आलिंगन करने के लिये उत्साहित करता है जो मसीह के आने और क्रूस पर चढाए जाने का सबसे बड़ा उदाहरण है, ताकि वे एकता की भावना रखें और एक दूसरे की फिक्र करें। पौलुस फिलिप्पियों से कहता है कि वे इस नीति को अपने जीवन में लागू करें और वह तीमुथियुस और इपफ्रुदीतुस की सेवकाइयों द्वारा त्याग के दो और उदाहरण देता देता है। मसीह का जानने को आनंद (अध्याय 3) तीसरे अध्याय में पौलुस गवाही देता है कि जीवन का सबसे बड़ा आनंद मसीह को जानना है क्योंकि उसी में परमेश्वर की धार्मिकता है जो अनंत जीवन की ओर ले जाती है। "प्रभु में आनंदित रहो" पौलुस इस घोषवाक्य की घोषणा करने में कभी नहीं थकता। यहूदियों के समान पुराना फरीसी के रूप में पौलुस की अपनी "धार्मिकता" की महिमा या बड़ाई करने के कई कारण है। परंतु वह सब कुछ जिसे उसने किसी समय इकट्ठा कर रखा था - उसका नाम, शीर्षक, उपलब्धियाँ उन सबको उसने कूडे़ मे फेंक दिया था ताकि उससे भी ज्यादा मूल्यवान वस्तु को प्राप्त कर सके: "मेरे प्रभु यीशु मसीह को जानना।" (पद 8)। मसीह को जानने मे आनंद की प्राप्ति है। अन्य लोग संसारिक आनंद की प्राप्ति में अपना जीवन बिता सकते हैं, परंतु "हमारी नागरिकता स्वर्ग की है।" हम उँचे और बेहतर स्थान के हैं और बड़े आनंद की लालसा करते हैं - महिमा में मसीह की समानता में परिवर्तित होने का आनंद। मसीह में स्थिर रहने का आनंद (अध्याय 4) 4थे अध्याय में पौलुस हमें बताता है कि आनंदित होने के लिये हमें मसीह में स्थिर रहना सीखना चाहिये। प्रोत्साहन की श्रंखला में पौलुस फिलिप्पियों से आग्रह करता है कि वे एकता, प्रार्थनामय निर्भरता और पवित्रता की जीवनशैली अपनाने के द्वारा भाइयों के साथ शांति रखें। आगे वह परमेश्वर की शांति पाने और परमेश्वर के सत्य मेल करने का रहस्य बताता है। फिर वह उनके वरदान के विषय आनंदित होता है, परंतु समझाता है कि मसीह की सामथ्र्य उसे परिस्थितियों के उपर जीने में सहायता करती है। पत्र पौलुस द्वारा परमेश्वर की महिमा और उसके पाठकों को प्रभु यीशु मसीह के अनुग्रह की आशीष देने के साथ खत्म होता है। महिमा और अनुग्रह - ये वे दो शब्द हैं जो पौलुस के जीवन और सेवकाई का सिद्व सार है।
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