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रोमियों की पत्री का सर्वेक्षण रोमियों की पत्री को प्रेरित पौलुस का संपूर्ण, भव्यतम और सबसे अधिक विस्तृत सुसमाचार बताया जाता है। इसे विश्वासियों का संविधान और घोषणापत्र भी कहा जाता है जिसमें मसीही जीवन का सार मूलभूत सिद्धांत निहित है। रोमियों की पत्री के साथ हम वचन के उस खंड में पहुँचते हैं जिन्हें पत्रियाँ या पत्र कहते हैं। यह खंड अर्थात रोमियों से यहूदा तक, सुसमाचार और प्रेरितों के काम में बताए गए मसीह के विषय विस्तृत जानकारी देते हैं। यह मसीही जीवन के सैद्धांतिक उलझनों और सिद्धांतों को भी प्रस्तुत करते हैं। रोमियों का पाश्र्वभूमिका: पौलुस ने रोम में कलीसिया की स्थापना नहीं किया न ही उसमें उस पत्र के लिखते समय रोम को भेंट दिया था, यद्यपि वह पूरी तरह उसके उन्नति और प्रभाव को जानता था (रोमियों 1:8-13)। संभव है कि इस कलीसिया की शुरूवात पिन्तेकुस्त के तुरंत बाद हुई थी (प्रेरितों के काम 2) जब रोमी यहूदी सुसमाचार की ज्वाला के साथ यरूशलेम से लौटे थे जो अब तक उनके जीवन में जल रही थी। फिर सुसमाचार रोम को अन्य जातियों में फैल गया। रोमी कलीसिया की उन्नति के साथ पौलुस की पूर्व की मिश्नरी सेवा की सफलता जुड़ी थी। जिस समय पौलुस ने रोमियों को पत्र लिखा, वह यहूदिया से मकिदुनिया तक प्रचार, कलीसियाओं की स्थापना, और अगुवों को प्रशिक्षित कर रहा था। अब समय आ गया था कि वह नए स्थानों में सुसमाचार पहुँचाए। इसलिये उसने अपना ध्यान स्पेन पर लगाया। कुरिन्थ शहर से उसने योजना बनाया कि वह अखाया और मकिदुनिया की अन्यजातीय कलीसियाओं को दान अर्पण करेगा। फिर वह यरूशलेम से स्पेन जाएगा,रोम में ठहरेगा जो साम्राज्य की राजधानी थी, ताकि वहाँ के मसीहियों को मसीही जीवन में प्रोत्साहित कर सके। (रोमियों 19:21,22; 15:24,28)। कुरिन्थ में वह गयुस के साथ रहता था (रोमियों 16:23) संभवतः सन 57 की शीत में पौलुस ने इस पत्र को तिरतियुस को लिखवाया (रोमियों 16:22) और रोमी मसीहियों को अपनी योजना के विषय बताया। किंख्रिगा की कलीसिया की सेविका फीबे ने इस पत्र को रोम तक पहुँचाई (रोमियों 16:1-2)। पौलुस ने इस पत्राचार को रोमियों को विश्वास में मजबूत बनाने का मौका समझा ताकि वे साम्राज्य के बाकी हिस्से के लिये प्रकाश बन सकें। पत्र तार्किक रूप से शुरू होता है जब पौलुस यह तर्क करता है परमेश्वर हमसे जो चाहता है उसे पूरा करने के लिये वह हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति भी करता है। अर्थात सिद्ध धार्मिकता। केवल मसीह पर विश्वास करने के द्वारा ही पापियों को "परमेश्वर की धार्मिकता" प्राप्त होती है, जो परमेश्वर के हमारे विषय के पवित्र क्रोध को खत्म करती है और हमारा उसके साथ हमेशा के लिये प्रेमी रिश्ता जोड़ती है। परिचय (1:1-17) पौलुस इस पत्र की शुरूवात स्वयं को "यीशु मसीह का दास और प्रेरित होने के लिये बुलाया गया" इन शब्दों से करता है (1:1)। यहाँ वह एक ऐसा व्यक्ति है जो स्वयं को जानता था, परमेश्वर को जानता था, उसके उद्देश्य को जानता था जिसे सुसमाचार का प्रचार करना था - क्योंकि सुसमाचार "हर एक विश्वास करनेवाले के लिये उद्धार के निमित्त परमेश्वर की सामर्थ है।" (पद 16) आगे पौलुस उसके मुख्य उद्देश्य "परमेश्वर की धार्मिकता" का परिचय देता है जिसे वह पूरे पत्री में विकसित करता है। "धार्मिकता" शब्द जो इस पुस्तक में 35 बार प्रयुक्त हुआ है, उसे पौलुस द्वारा परमेश्वर की व्यवस्था का भीतरी और बाहरी रूप से समानता को परिभाषित किया जाता है। और वह कहता है कि कोई भी व्यक्ति ईश्वरीय, दखल के बिना धार्मिकता को प्राप्त नहीं कर सकता। परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिये हमें जिस धार्मिकता की आवश्यकता होती है वह स्वयं परमेश्वर की ओर से ही आनी चाहिये। बुरा समाचार: हम दोषी हैं (1:18-3:20) धार्मिकता परमेश्वर की ओर से वरदान क्यों होती है? क्यांेकि सारी मानवजाति अधार्मिक, पाप से भ्रष्ट और परमेश्वर के सिद्ध पैमाने के अनुसार जीने में असमर्थ है। यद्यपि कम से कम मानवीय दृष्टिकोण से कुछ लोग दूसरों की अपेक्षा बेहतर जीवन जीते हैं, फिर भी हर कोई परमेश्वर के सामने दोषी है - हम सब अपने मार्ग से भटक गए हैं - "कोई धर्मी नही, एक भी नहीं" (पद 10)। संपूर्ण पापी मनुष्य जाति परमेश्वर के न्याय के अधीन है। यह कितना मनहूस चित्रण है, है ना? यदि हम यहीं रूक जाएँ तो हम निराशा और नाश में खत्म हो जाएँगे। परंतु कहानी में और कुछ है। शुभ संदेश: परमेश्वर ने अपनी धार्मिकता हमें दी है (3:21-5:21) पापी लोग परमेश्वर के क्रोध को किस तरह शांत कर सकते हैं? हम नहीं कर सकते। इसलिये स्वयं परमेश्वर के क्रूस पर उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमें मार्ग बताया। यद्यपि हम "सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं" (पद 23), फिर भी हम "उसके अनुग्रह से उस छुटकारे के द्वारा जो मसीह यीशु में है, सेंतमेंत धर्मी ठहराए" जा सकते हैं" (पद 24)। धर्मी ठहराए जाने का क्या अर्थ है? क्या इसका मतलब यह हुआ कि मसीह द्वारा दिये जानेवाले उद्धार को स्वीकार करने के द्वारा हम तुरंत धर्मी बनाए जाते हैं? नहीं। इसका मतलब यह होता है कि हम धर्मी घोषित किए जाते हैं। हम परमेश्वर के साथ संबंध का ऐसा आनंद मना सकते हैं जैसे हम धर्मी हैं। बिना कर्मों के ही धार्मिकता? पौलुस को अंदाजा था कि यहूदी पाठक इस विचार से सहमत नहीं होंगे। अंततः संस्कारों की यहूदी धर्म में मुख्य भूमिका होती है। मसीह के पास आने वाले कुछ यहूदी उन कुछ संस्कारों को संपन्न करना चाहते थे, जैसे खतना, उद्धार का एक आवश्यक घटक था। फिर भी यहूदी इतिहास केवल विश्वास द्वारा धर्मी ठहराए जाने के उदाहरणों से भरा पड़ा है और पौलुस उन्हें तुरंत प्रकाश में लाता है। पहले अब्राहम यहूदियों का पिता जिसका विश्वास "उसकी धार्मिकता गिना गया" इससे पहले कि उसका खतना हुआ (4:3)। और फिर दाऊद जिसके पाप उसके लेखे नहीं लिखे गए यद्यपि उनके कारण निश्चित रूप से परमेश्वर का क्रोध भड़का था। (पद 7-9)। 2 कुरिन्थियों में पौलुस इस तरह कहता है, "जो पाप से अज्ञात था उसी को उसने हमारे लिये पाप ठहराया कि हम उसमें होकर परमेश्वर की धार्मिकता बन जाएँ।" (2कुरि 5:21)। यह सचमुच अच्छा समाचार है। यहूदी और अन्यजातियों, खतनासहित और खतना रहित दोनो के लिये समान रूप से। ठीक जिस प्रकार आदम की अनाज्ञाकारिता ने मनुष्यजाति के लिये पाप और मृत्यु को लाई, उसी प्रकार मसीह की आज्ञाकारिता धार्मिकता और जीवन को लाती है (रोमियों 5:18-19)। और अच्छे समाचार: हमें वैसा नहीं रहना होगा जैसा हम रहते थे (अध्याय 6-8)। जाहिर है कि पौलुस को उसके पाठकों से इस प्रश्न के पूछे जाने की उम्मीद थी: "तो हम क्या कहें? क्या हम पाप करते रहें कि अनुग्रह बहुत हो?" (6:1)। दूसरे शब्दों में चूँकि हम धर्मी ठहराए गए हैं और बने रहेगे, तो क्या पाप करने के द्वारा हम अपनी मर्जी से नहीं जी सकते? "कदापि नहीं! पौलुस कहता है। हम जब पाप के लिये मर गए तो फिर आगे को उसमें कैसे जीवन बिताएँ?" उद्धार हमें पाप करने के लिये स्वतंत्र नहीं करता, वह हमें पाप न करने के लिये स्वतंत्र करता है (पद 2-11)। मसीह मे विश्वासी होने के द्वारा हम स्वयं मसीह और उसके बल में एक किए गए हैं। अब हमारे जीवनों में पाप की प्रभुता नहीं। हम परमेश्वर के लिय मसीह यीशु में जीवित रहें।" (पद 11)। मसीह में इस नए जीवन जीने की दैनिक प्रक्रिया को "पवित्रीकरण" कहते हैं (पद 22)। जबकि धर्मी ठहराया जाना परमेश्वर की धार्मिकता की घोषणा की है, पवित्रीकरण, धार्मिकता में हमारा विकास है। धर्मी ठहराए जाने का संबंध मसीह में हमारी स्थिति से है। पवित्रीकरण मसीह की ज्यादा स्वरूपता में होने की प्रक्रिया है। प्रगतिशील मसीहियों के नाते हम अब व्यवस्था के अधीन नहीं है, जिसने हमारे पापों को दिखाया और हमें दोषी ठहराया। इसके बदले उसने हमें मसीह से प्रेम करने और उसकी सेवा के लिये स्वतंत्र किया और हम आत्मा में जीते हैं। जैसा कि हम सब जानते हैं, पुरानी आदतें कठिनाई से छूटती हैं। यद्यपि हम मसीह में नई सृष्टि हैं, और एक दिन सिद्ध भी हो जाएँगे, फिर भी हम इस जीवन में पुराना, पापमय जीवन रोके रखते हैं। दो स्वभावों का यह युद्ध उनके लिये, संघर्ष होता है जो सचमुच मसीही जीवन में बढ़ना चाहते हैं।परंतु संघर्ष में भी वह आत्मा जो हमारे भीतर बसता है वह हमें यकीन दिलाता है कि हम परमेश्वर की संताने हैं और एक दिन हम उसका उपस्थिति में खड़े होंगे। (8:16-18)। एक दिन हम सारे पापों और क्लेशों से मुक्त हो जाएँगे (पद 23-25)। यहाँ तक कि जब हमें शब्द नहीं मिलते तब आत्मा हमारी सहायता करता है (पद 26-27)। आत्मा हमारे बल का स्त्रोत है और मसीह में हमारी सुरक्षा का प्रतीक भी है। वह सुरक्षा जो हमारी भलाई के लिये कार्य करती है (पद 28)। वह सुरक्षा कि परमेश्वर हमारी ओर से है, हमारे विरोध में नहीं (पद 31)। और यह सुरक्षा कि स्वर्ग और पृथ्वी में कोई भी बात हमें परमेश्वर के प्रेम से अलग नहीं कर सकती (पद 38-39)। इस्राएल का भविष्य (अध्याय 9-11) लेकिन हर किसी को इस सुरक्षा का एहसास नहीं होता, हर कोई बचाया नहीं जाता। और इसी वास्तविकता ने पौलुस को दुखी किया। क्योंकि कई ऐसे लोग जो बचाए नहीं गए थे वे उसके संगी यहूदी थे। यह कैसे हो सकता था कि परमेश्वर की वाचा के वे पुराने लोग सुसमाचार के प्रति इतने विरोधी हों? इस्राएल द्वारा परमेश्वर के तिरस्कार को पौलुस बताता है कि वह परमेश्वर की सर्वोच्च पसंद (अध्याय 9) और इस्त्राएल की कठोरता और धार्मिकता दोनों ही हैं (अध्याय 10)। तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि परमेश्वर ने इस्त्राएल को छोड़ दिया है? 11वें अध्याय में पौलुस के द्वारा दिया गया जैतून के पेड़ का उदाहरण इस बात का यकीन दिलाता है कि उसने नहीं छोड़ा है। यद्यपि अविश्वासी यहूदियों को "जैतून के पेड़" से काट डाला गया था, और विश्वास करने वाले अन्यजातियों को जोड़ दिया गया था, एक दिन "समस्त इस्राएल" बचाया जाएगा (11:26) और फिर से जोड़ा जाएगायह ईश्वरीय योजना पौलुस को परमेश्वर के "अथाह मार्गों" के लिये स्तुति करने के लिये बाध्य करता है (पद 33)। यद्यपि हम हमेशा यह नहीं समझ सकते कि परमेश्वर किसी भी कार्य या बात को उसके तरीके से क्यों करता है। और उसकी योजनाएँ उसके व्यक्तित्व के समान सिद्ध हैं। फिर हमें कैसे जीना चाहिए ? (12:1-15:13) मसीह ने हमारे लिये जो किया उसकी सच्चाई को बताकर अब पौलुस उसका ध्यान उस ओर लगाता है कि जो मसीह में हैं उनका जीवन कैसे बदलता है। परमेश्वर की दया के प्रकाश में पौलुस हमसे आग्रह करता है कि हम अपने शरीरों को जीवित और पवित्र बलिदान करके चढाएँ जो परमेश्वर को ग्रहणयोग्य हो और यही हमारी आत्मिक सेवा है (12:1)। इसका क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ यह होता है कि मसीही जीवन परमेश्वर को धन्यवादी भेंट है जिसने हमें उसकी सेवा के लिये स्वतंत्र किया है। हम उसकी सेवा किस तरह करते हैं? संसार के सदृश्य बनने की बजाए, हमें हमारे मन के नए हो जाने से बदलना है (पद 2) और अपने महत्व को पकड़े रहने के बजाय हमें दूसरों की कीमत समझना चाहिये। हमें ऐसा जीवन जीना चाहिये जो दूसरों की सेवा और भलाई करता हो, और बुराई को भलाई से जीतना चाहिये। हमंे अपने अगुवों के लिये प्रार्थना करना चाहिये, उन्हें समर्पित होना चाहिये और उनके अधीन आदर्श जीवन जीना चाहिये। मसीह में जीवन बाहय धार्मिकता से भी छुटकारा देता है। यद्यपि हमें दूसरे के विचारों या भावनाओं के प्रति संवेदनशील रहना चाहिये और उनका आदर करना चाहिये, फिर भी धार्मिकता हमारी सहभागिता या सहभागी न होने के द्वारा पारिभाषित नहीं होती। पौलुस कहता है कि "परमेश्वर का राज्य खाना-पीना नहीं, परंतु धर्म और मेल-मिलाप और वह आनंद है जो पवित्र आत्मा से होता है।(14:17)। स्वयँ को खुश करना मसीही जीवन का उद्देश्य नहीं है। हमें मसीह के आदर्श का पालन करना चाहिये और अपने पड़ोसी की भलाई के लिये काम करना चाहिये (पद 7)। संक्षेप में कहा जाए तो मसीही जीवन एक भिन्न जीवन है। और ऐसा जीवन जीने के लिये जो सब स्त्रोत हमें चाहिये, वे स्वयं मसीह में पाए जाते हैं। निष्कर्ष (15:14-16-27) पौलुस इस पत्र को व्यक्तिगत निर्देश के साथ खत्म करता है। वह एकदम व्यक्तिगत रीति से लिखता है (जिसमें वह मैं तुम से हर जगह संबोधित करता है) और "स्नेहपूर्ण " लिखता है (मेरे भाइयो 15:14)। वह अतीत वर्तमान और भविष्य की सेवकाई के विषय उनसे दिल खोलकर कहता है, वह नम्रता से उनकी प्रार्थनाओं के लिए आग्रह करता है, और उन्हें कई शुभकामनाएँ देता है। इन तरीकों से वह हमें उसके जीवन में परमेश्वर की सुरक्षा और कार्यों के विषय सूझबूझ प्रदान करता है। पौलुस इस पत्र को इस तरह खत्म करता है जो हम किसी ऐसे व्यक्ति से अपेक्षा कर सकते है जो परमेश्वर के अनुग्रह और महानता से बढ़कर नहीं है। "उसी एकमात्र बुद्धिमान परमेश्वर की यीशु मसीह के द्वारा युगानुयुग महिमा होती रहे।" आमीन। हम निश्चित रूप से नहीं जानते कि पौलुस ने कभी स्पेन की यात्रा किया। परंतु कैदी के रूप में रोम ले जाया गया था और उसने वहाँ नजरबंदी के दो वर्षों के दौरान उसने प्रचार किया (प्रेरितों के काम 28:16-31)। रोम की दूसरी यात्रा जो उसने सन 67 में किया था पूरी संभावना है कि यह यात्रा उसकी शहादत के साथ खत्म हुई थी। सम्राट नेरो द्वारा मृत्युदण्ड की आज्ञा ने पौलुस के जीवन का अंत कर दिया था, परंतु वह उसकी आवाज को बंद नहीं कर सका था। और वह कभी बंद नहीं होगी।
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