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गलातियों और 1,2 और 3 थिस्सलुनीकियों का सर्वेक्षण गलातियों की पत्री मसीहियों का बुनियादी कानून है। गलातियों ने मसीही विश्वास का जीवन शुरूवात किया,बाद में विश्वास से हट गएऔर कर्मों पर आधारित बातों पर नया जीवन शुरू कर दिया था। गलातियों को उसका पत्र कार्यों के सुसमाचार पर घातक हमला और विश्वास के सुसमाचार की रक्षा है। इस पुस्तक को "प्रोज़ गलाताज" याने "गलातियों को" कहा जाता है और यही एकमात्र पत्री है जिसमें पौलुस ने कई कलीसियाओं को संबोधित किया है। "गलातियों" शब्द या नाम लोगों के दो भिन्न समूहों के लिये प्रयुक्त किया गया है। शुद्धि रीति से भौगोलिक राजनीति भाव में प्रयुक्त यह शब्द सेल्टिक वंश (गॉल) के लोगों पर लागू होता है जो उत्तरी एशिया मायनर (आज का टर्की) में बस गए हैं। इस नाम का उपयोग समस्त गलातिया के रोमी प्रांत के लिये भी किया जाता है जिसमें एशिया मानयर का उत्तरी प्रांत भी सम्मिलित है परंतु करीब-करीब भूमध्य सागर के दक्षिण तक फैला है।कई वर्षों तक यह वाद विवाद चलता रहा है कि पौलुस ने "उत्तरवासियों" को लिखा था या रोमी गलातिया के दक्षिणी प्रांत के लोगों को लिखा था। प्रमाण बताते हैं कि पौलुस ने दक्षिणी गलातियों को लिखा था क्योंकि उसकी पहली मिश्नरी यात्रा ने उसे पिसिदिया अंताकिया, इकुनियुम, लुस्त्रा और दिरबे में ले गई। और पौलुस ने उन कलीसियाओं का जहाँ वह रहा था, राजनैतिक भाव में जिक्र किया था। इसलिये गलाति लोग संभवतः दक्षिण गलातिया के रहवासी थे जो पौलुस को मिश्नरी यात्रा के दौरान मसीही बनाए गए थे। शायद पौलुस ने उन्हें यह पत्री उसकी यात्रा के बाद करीब सन 49 में अंताकिया से लिखा था।चूंकि गलातियों की पत्री विशेष नास्तिकता के प्रति पौलुस की प्रतिक्रिया है, यह पत्र सीधा, संक्षिप्त और समझने में सरल है। प्रथम दो अध्याय व्यक्तिगत हैं, पौलुस उसकी प्रेरिताई की रक्षा करता है और उस सुसमाचार की भी जिसका वह प्रचार करता है। विश्वास द्वारा धर्मी ठहराए जाने की रक्षा पर केंद्रित है और इस बात पर कि किस तरह विश्वास कानूनवाद या व्यवस्था से स्वतंत्र करता है।अंतिम दो अध्याय ज्यादा प्रायोगिक हैं, क्याोंकि पौलुस गलातियों को प्रेम और सेवा की आत्मा से मसीही स्वतंत्रता का जीवन जीने को प्रोत्साहित करता है।गलातिया में पौलुस को कलीसिया स्थापित किए ज्यादा समय नहीं हुआ था, कि कुछ यहूदी मसीहियों ने इन नए विश्वासियों को सिखाया कि परमेश्वर की संपूर्ण आशीष पाने के लिये यहूदी होना जरूरी है। इसलिये उन्हें पहचान का निशान देना होगा कि वे यहूदी हैं: खतना, सब्त का मानना आदि।वरोधी शिक्षकों के संदेश ने गलातिया की कलीसियाओं में जवाबदारी की डोर बांध दी। गलातिया के परिवर्तितों में सामाजिक पहचान के खोने की भावना रही होगी क्योंकि मसीह में उनके नए विश्वास ने उन्हें विधर्मी मंदिरों और यहूदी आराधनालयों दोनों से वंचित कर दिया था। इसलिये उन्होंने व्यवस्था के पालन के द्वारा स्वयं की यहूदियों से समानता बनाया। उनका ध्यान विश्वास के द्वारा मसीह के साथ मेल और निर्भरता से यहूदी राष्ट्र के साथ पहचान और व्यवस्था के पालन पर चला गया। ये शिक्षक - जो यहूदी कहलाते थे ऐसा सोचते थे कि पौलुस काफी दूर निकल गया था, कि उसका सुसमाचार अति सरल था और आरामदेह जीवन की पैरवी करता था। उनका विश्वास था कि उद्धार प्राप्ति और यकीन के लिये विश्वास के साथ साथ यहूदी संस्कार भी संपन्न किए जाने चाहिये। दूसरे शब्दों में मात्र यीशु ही पर्याप्त नहीं था।इन यहूदी शिक्षकों के लिए पौलुस के पास एक संदेश था, "वे शापित हो!" (गलातियों 1:8-9)। केवल यीशु ही हमारा उद्धार, हमारी धार्मिकता है। उद्धार के लिये मानवीय कर्मों की मांग करना, परमेश्वर के कार्यों का श्रेय स्वयं लेना है। अनुग्रह से सुसमाचार की रक्षा की गई (1 और 2) पौलुस उसे दी गई ईश्वरीय प्रेरिताई की पुष्टि करता है और सुसमाचार को प्रस्तुत करता है (1:1-15) क्योंकि उसे गलातियों के बीच झूठे शिक्षकों द्वारा तोड़-मरोड़ किया गया था (1:6-10)। पौलुस विश्वास द्वारा धर्मी ठहराए जाने के सच्चे सुसमाचार के तर्क को यह बताकर प्रस्तुत करता है कि उसने यह संदेश मनुष्यों की ओर से नहीं परंतु सीधे परमेश्वर की ओर से पाया है (1:11-24)। जब वह प्रेरितों को यरूशलेम में मसीही स्वतंत्रता की शिक्षा देता है, वे सब उसके संदेश की वैधता और अधिकार को स्वीकार करते हैं (2:1-10)। पौलुस पतरस को व्यवस्था से स्वतंत्रता के विषय उसकी गलती को सुधारता है। (2:11-21)। अनुग्रह के सुसमाचार को समझाया गया (3 और 4) इस भाग में विश्वास द्वारा धर्मी ठहराए जाने के तर्क को निम्नलिखित कथन द्वारा प्रस्तुत करता है: - गलातियों ने विश्वास से शुरूवात किया और मसीह में उनकी उन्नति भी विश्वास द्वारा ही होना चाहिये (3:1-5) - अब्राहम विश्वास द्वारा धर्मी ठहराया गया था, और यही सिद्धांत आज भी लागू है (3:6-9) - मसीह ने उन सबको व्यवस्था के शाप से छुड़ा लिया जिन्होंने उस पर विश्वास किया (3:10-14) - अब्राहम के साथ की गई प्रतिज्ञा व्यवस्था द्वारा रद्द नहीं की गई थी (3:15-18) - व्यवस्था लोगों को विश्वास की ओर ले जाने के लिये दी गई थी, उन्हें बचाने के लिये नहीं (3:19-22)। - मसीह में विश्वासी परमेश्वर के दत्तक पुत्र हैं, और व्यवस्था के अधीन नहीं है (3:23-4:7) - गलातियों को चाहिये कि वे उनकी कमियों को पहचाने और मसीह में उनके मूल विश्वास को फिर से प्राप्त करें (4:8-20) - अब्राहम के दो पुत्र प्रायोगिक रूप से अब्राहम की प्रतिज्ञा की सर्वोच्चता को मूसा की व्यवस्था से समझाते हैं (4:21-31)। अनुग्रह का सुसमाचार लागू किया गया ( 5 और 6) यहूदीवादी लोग गलातियों को उनके व्यवस्था द्वारा धर्मी ठहराए जाने की व्यवस्था के झूठ में बांधे रखने की सोचते थे, परंतु पौलुस उन्हें चेतावनी देता है कि व्यवस्था और अनुग्रह दोनों विपरीत सिद्धांत हैं (5:1-12)। अभी तक पौलुस विश्वास की स्वतंत्रता को व्यवस्था के बंधन के विपरीत बताता रहा था, परंतु इस समय वह गलातियों को अतिशयोक्ति के विषय चेतावनी देता है (5:13-6:10)। भीतर बसनेवाले पवित्र आत्मा के कारण मसीही न केवल व्यवस्था के बंधन से मुक्त हैं परंतु वह पाप के बंधन से भी मुक्त हैं। स्वतंत्रता शरीर के कामों में लगे रहने के लिये बहाना नहीं है, बल्कि यह परमेश्वर पर निर्भर जीवन के द्वारा आत्मा के फलों को लाने का मौका प्रदान करती है। अंततः पौलुस झूठे शिक्षकों को क्रूस की बजाय खतना के विषय डींग मारने के बारे में फटकार लगाता है। लेकिन वह केवल हमारे प्रभु यीशु मसीह के क्रूस में घमंड करने की इच्छा करता है। क्योंकि हमारा उद्धारकर्ता ही है, जो क्रूस पर मरा खतना की विधि नहीं, जो नया जीवन निर्माण करता है। और इसी संदेश के प्रचार के लिये पौलुस ने काफी दुख उठाया। अंत में पौलुस वह लिखता है जिसकी गलातियों को सर्वाधिक आवश्यकता है - अर्थात अनुग्रह। "हे भाइयो, हमारे प्रभु यीशु मसीह का अनुग्रह तुम्हारी आत्मा के साथ रहे, आमीन।" मसीह ने हमें स्वतंत्र किया है। आइये हम स्वतंत्र रहें। क) 1 थिस्सलुनीकियों: वे दो पत्र जो पौलुस ने थिस्सलुनीकियों को लिखा वे पितृत्व स्नेह और सलाह से भरपूर हैं। पौलुस की याददाश्त में वे सारी सुहानी बातें थी जो उसने नवजात थिस्सलुनीकी कलीसिया में बिताए गए दिनों में अनुभव किया था। सताव के दौरान उनका विश्वास, प्रेम और सहनशीलता आदर्श हैं। इस नवजात कलीसिया के लिये पौलुस द्वारा किया गया आत्मिक पिता का कार्य काफी फलदायी रहा, और उसका स्नेह पत्र के हर लाइन में दिख पड़ता है। पौलुस के समय में, थिस्सलुनीका प्रसिद्ध समुद्री बंदरगाह था और मकीदुनिया के रोमी प्रांत की राजधानी था। यह समृद्धशाली शहर रोम से पूर्व के मुख्य मार्ग पर स्थित था। कसंदर ने ईसापूर्व वर्ष 315 में शहर का विकास किया था। और उसे अपनी पत्नी के नाम पर नया नाम दिया था जो सिंकदर महान की आधा बहन थी। उसमें काफी संख्या में यहूदी लोग थे। यहूदीवाद ने भी अन्यजातियों को आकर्षित किया था। परमेश्वर के इन रवैयों ने आराधनालय में पौलुस द्वारा किए गए प्रचार पर तुरंत अनुक्रिया किया था जो उसने उसकी दूसरी मिश्नरी यात्रा के दौरान किया था (प्रेरितों के काम 17:10)। तीन सब्तों में उसने यीशु मसीह के शुभ संदेश का प्रचार किया, और कई यहूदियों ने विश्वास किया और साथ ही कई यूनानियों ने भी जो यहूदीवाद की ओर फिर गए थे। लेकिन आराधनालय के कुछ यहूदी पौलुस के प्रभाव से जलते थे, इसलिये उन्होंने एक भीड़ इकट्ठा किया और शहर को उसके विरोध में भड़काया। उसे नए विश्वासियों को वही छोड़कर शहर से बाहर जाने के लिये बाध्य किया गया। थिस्सलुनीके से पौलुस बिरीया गया और अततः एथेन्स गया। जब एथेन्स में सीलास और तीमुथियुस पौलुस से मिले तब पौलुस ने तीमुथियुस को थिस्सलुनीके को भेजा। फिर पौलुस कुरिन्थ गया, जहाँ वह तीमुथियुस के शब्द के लिये उत्सुकता से ठहरा रहा। अंत में तीमुथियुस उसकी रिपोर्ट के साथ पहुँचा। इस प्रकार सन 51 के करीब पौलुस ने थिस्सलुनीकियों का पहला पत्र लिखा। पुस्तक का मुख्य उद्देश्य: पौलुस द्वारा संबोधित कई विषयों में मसीह का दोबारा आगमन उसका मुख्य विषय है। प्रत्येक अध्याय इस महिमायम घटना के संदर्भ के साथ खत्म होता है। और आत्मिकता के अनुसार यह जीवन का केंद्र बिंदू है जो हमें आशा और नैतिक दिशा देता है। निम्नलिखित बातों को ध्यान दें। - यह हमें परमेश्वर के न्याय से बचाता है (1:10) - यह महिमा, प्रतिफल और आनंद का समय है विशेषकर उन पर जिन्हें हमने मसीह के पास लाया है (2:19) - यह पवित्र जीवन जीने के लिये प्रेरणा है (3:13) - यह दुखी लोगों के लिये आशा और शांति है। (4:13-18) - यह पवित्रीकरण का उद्देश्य है (5:23) पौलुस पीछे देखता है (अध्याय 1-3) पहला अध्याय थिस्सलुनीकियों के संसारिकता से मसीही आशा में संपूर्ण परिवर्तन के विषय धन्यवादी घोषणा है। विश्वास, प्रेम और आशा (1:3) इन विश्वासियों के नए जीवन का चित्रण करते हैं। पौलुस थिस्सलुनीका में उसकी सेवकाई की समीक्षा करता है और अपने चरित्र और इरादों की रक्षा करता है और स्पष्टतः उन शत्रुओं को जवाब देने के लिये जो उसके चरित्र और संदेश के विषय संदेह कर रहे थे। उन्हें सिखाने के लिये वह तीमुथियुस को भेजता है, और उस समय काफी राहत महसूस करता है जब तीमुथियुस विश्वास और प्रेम में स्थिरता के विषय बताता है (2:17-3:10)। इसलिये पौलुस, इस खंड को इस प्रार्थना के साथ बंद करता है कि उनका विश्वास और अधिक गहरा हो जाए (3:11-13)। पौलुस आगे देखता है (अध्याय 4 और 5) फिर पौलुस उन्हें उन्नति करते रहने के लिये प्रोत्साहित करने के द्वारा उनकी प्रशंसा और निर्देशों की श्रंखला को ओर मुड़ता है। वह उन्हें पिछली शिक्षा जो उसने सामाजिक विषयों पर दिया था, उनकी याद दिलाता है (4:1-2) क्योंकि ये अन्यजातीय विश्वासी नैतिक पोषण में कम पाए गए थे। अब परमेश्वर के वचन में जड़ पकड़कर (2:13) हमें भी विधर्मी समाज के निरंतर दबावों का सामना करना चाहिये। पौलुस ने उन्हें मसीह के पुनरागमन के विषय सिखाया था, परंतु वे उनके बीच कुछ लोगों की मृत्यु के कारण निराश हो गए थे। 4:13-18 में वह उन्हें यह कहकर शांति देता है कि वे सब लोग जो मसीह में मरते हैं, मसीह के पुनरागमन के समय पुनरूत्थित होंगे। आगे प्रेरित प्रभु के आनेवाले दिन के विषय कहता है (5:1-11)। इस दिन की प्रतीक्षा में विश्वासियों को जागते रहना और ज्योति की संतान के समान बनना है जिनका उद्धार होना है, परमेश्वर के क्रोध का पात्र नहीं। "प्रकाशमान" लोग कैसे जीते हैं?पद 12:22 में पौलुस व्यवहारिक चित्रण प्रस्तुत करता है।उनके संबधों में वे - उनके अगुवों की प्रशंसा करते और उन्हें सर्वोच्च बताते हैं (पद 12-13क) - शांति से रहते थे (पद 13ख) - एक दूसरे की तारीफ, प्रोत्साहन, सहायता करते थे और धीरज का प्रदर्शन करते थे (पद 14) - प्रतिकार नहीं करते थे परंतु एक दूसरे की भलाई करते थे (पद 15) और प्रभु के साथ उनके चालचलन में, वे: - आनंद करते, प्रार्थना करते, धन्यवाद देते थे (पद 16:18) - "आत्मा को मत बुझाओ या भविष्यद्वाणियों को तुच्छ न जान" का पालन करते थे (पद 19-20) - हर बुराई की बातों से दूर रहते थे (पद 22) पौलुस अपने पत्र के संदेश को इस आशीष वचन के साथ खत्म करता है: "शांति का परमेश्वर आप ही तुम्हें पूरी रीति से पवित्र करे, और तुम्हारी आत्मा और प्राण और देह हमारे प्रभु यीशु मसीह के आने तक पूरे पूरे और निर्दोष सुरक्षित रहें। तुम्हारा बुलाने वाला सच्चा है और वह ऐसा ही करेगा।" (पद 23-24)। ख) 2 थिस्सलुनीकियों: संभवतः यह पत्र 1 थिस्सलुनीके लिखने के कुछ माह के बाद ही लिखा गया था जब पौलुस सीलास और तीमुथियुस के साथ कुरिन्थ में ही था (1:1; 18:5)। 1 थिस्स. में पौलुस ने अपना पाठकों से कलीसिया के उठाए जाने वह समय जब मसीह उसके अनुयायियों को ले जाने के लिये स्वयं प्रगट होगा और प्रभु के दिन दोनों के विषय बताया था (1 थिस्स 4:13-5:11)। उसने उन्हें प्रभु में स्थिर रहने और मसीह की वापसी की बाट जोहने को कहा था। दुर्भाग्यवश, गलत अफवाह फैल गई थी कि प्रभु का दिन पहले ही आ चुका है। सताव ने कई लोगों के भय को प्रमाणित कर दिया था कि परमेश्वर का कोप पृथ्वी पर भड़कने ही वाला है। लेकिन अन्य लोगों ने अंत की राह देखते हुए उनके कार्यों को छोड़ दिया था और आलसी बन गए थे, दूसरों पर बोझ बन गए थे और किसी तरह गुजारा कर रहे थे। संक्षेप में कहा जाए तो 2 थिस्स सताव के दौरान पौलुस द्वारा प्रोत्साहन को बताता है (1); प्रभु के दिन के विषय पौलुस के स्पष्टीकरण (2) और कलीसिया को पौलुस द्वारा प्रोत्साहन (3)। सताव में पौलुस द्वारा प्रोत्साहन (अध्याय 1) अभिवादन के बाद पौलुस थिस्सलुनीकियों के बढ़ते विश्वास और प्रेम के लिये धन्यवाद देता है जो उन्हें सताते थे। उन्हें धीरज के साथ कष्ट सहने को प्रोत्साहित करता है यह समझते हुए कि जब प्रभु यीशु "अग्नि में होकर उसके सामर्थशाली स्वर्गदूतों के साथ स्वर्ग से प्रगट होगा" तो वह उनके सतानेवालों को दंड देगा। अगले विषय में जाने से पहले पौलुस इस विषय को विश्वासियों का आत्मिक भलाई के लिये प्रार्थना के साथ खत्म करता है। प्रभु के दिन के विषय पौलुस का स्पष्टीकरण (अध्याय 2) उनके दुखों की गंभीरता के कारण थिस्सलुनीकी लोग झूठी शिक्षा के झाँसे में आ गए थे (संभवत पौलुस के नाम से एक झूठे पत्र के द्वारा) जो यह दावा करता था कि वे पहले से ही प्रभु के दिन में हैं (2:1-2)। यह बात अति कायल करने वाली थी क्योंकि पौलुस के पिछले पत्र में उन्हें सांत्वना दी गई थी वे परमेश्वर के क्रोध के पात्र नहीं थे। इसलिये पौलुस उन्हें यकीन दिलाया है कि प्रभु का दिन अभी आने का है और वह सूचित किए बिना नहीं आएगा (2:3-12)। फिर पौलुस प्रोत्साहन और आशीष और शांति के वचनों के साथ पत्र खत्म करता है। कलीसिया को पौलुस का प्रोत्साहन (अध्याय 3) थिस्सलुनीके की कलीसिया से पौलुस अनुरोध करता है कि प्रार्थना करें और धीरज से परमेश्वर की बाट जोहते रहें (3:1-5)।इस प्रकार से आज्ञा देकर,सुधार कर और अपने पाठकों को शांति देकर पौलुस उन लोगों को आज्ञा देते हुए यह पत्र बंद करता है जो मसीह की वापसी के सत्य का उपयोग उनके अव्यवस्थित आचरण को ढांपने के लिये करते थे (3:6-15)। प्रभु की वापसी की शिक्षा बाट जोहने और कार्य करने के बीच संतुलन की मांग करती है। यह पवित्रता को बढ़ावा देती है, आलस्य को नहीं। इस विषय को वह प्रार्थना के साथ खत्म करता है: "अब प्रभु जो शांति का सोता है आप ही तुम्हें सदा और हर प्रकार से शांति दे। प्रभु तुम सब के साथ रहे। "थिस्सलुनीकियों के लिये जो सतानेवालों द्वारा कष्ट उठा रहे थे, परमेश्वर की शांति एक बहुमूल्य वरदान थी। लेकिन मसीह उसकी शांति से ज्यादा देता है वह उसकी उपस्थिति उपलब्ध करता है। इस बात पर बल देने के लिये पौलुस "अपने हाथों से एक पंक्ति और लिखता है" हमारे प्रभु यीशु का अनुग्रह तुम सब पर होता रहे" (पद 17,18)।
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