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पौलुस की यात्रा और जहाज का टूटना जहाज पलिस्तीन के किनारे से उत्तर की ओर चला और सिदोन पहुँचा। यूलियस सूबेदार ने पौलुस को किनारे जाकर उसके मित्रों से मिलने की अनुमति दिया। सिदोन से वे साइप्रस गए और द्वीप के किनारे से तूफानों से बचते हुए निकले। विपरीत तूफानी हवाओं के बावजूद जहाज एशिया मायनर के दक्षिण तट से निकला और फिर किलिकिया और पंफूलिया से होकर मूरा पहुँचा जो लूसिया का बंदरगाह है। वहाँ सूबेदार ने कैदियों को दूसरे जहाज में बिठाया, क्योंकि पहला जहाज इटली नहीं ले जा सकता था। दूसरा जहाज सिकंदरिया से था। उसमें 276 लोग, चालक दल और यात्री दोनों तथा गेहूँ था। सिकंदरिया से वह जहाज उत्तर की ओर भूमध्य सागर से होते हुए मूरा की तरफ चला था और अब पश्चिम में इटली की ओर जा रहा था। विपरीत हवाओं के कारण प्रवास कई दिनों तक धीमा रहा। बड़ी मुश्किल से मल्लाहों ने जहाज को कनिदुस के सामने लाया, एक बंदरगाह जो एशिया मायनर के दक्षिणपूर्व में स्थित है। चूंकि हवाएँ उनके विरुद्ध थी, वे दक्षिण की ओर क्रेते टापू के पूर्व से निकले। सलमोन के सामने से होकर वे पश्चिम की ओर मुड़ गए और जब तक वे लसिया के शुभलंगरबारी न पहुँच गए।यहएक बंदरगाह है जो क्रेते के दक्षिण-मध्य तट पर लसिया शहर के पास है। अबतक विपरीत स्थितियों के कारण काफी समय बर्बाद हो चुका था। शीतकाल के आगमन के कारण आगे की यात्रा खतरनाक हो चुकी थी। पौलुस ने मल्लाहों को चिता दिया था कि आगे की यात्रा असुरक्षित थी और यदि यात्रा जारी रखी गई तो सामान और जहाज के नुकसान का खतरा है, और जहाज में सवार कुछ लोगों के जीवन को भी खतरा है। फिर भी जहाज का मालिक आगे बढ़ना चाहता था। सूबेदार और कई अन्य लोगों ने भी उनसे सहमति जताया। उन्होंने समझा कि बंदरगाह जाड़ा काटने के लिये फिनिक्स के समान उचित नहीं था। फीनिक्स शुभलंगरबारी ते 40 कि.मी दूर था। जब दक्षिणी हवाएँ धीरे धीरे बहने लगी तो मल्लाहों ने सोचा कि वे फिनिक्स की यात्रा कर सकेंगे। उन्होंने लंगर उठा लिये और किनारे-किनारे पश्चिम की ओर जाने लगे। फिर यूरकुलीन नामक आंधी जमीन की ओर से उठी। जहाज को अपने मन के अनुसार न चला सकने के कारण उन्होंने उसे हवा की दिशा में बहने दिया। बहते हुए वे दक्षिण-पश्चिम में एक छोटे द्वीप कौदा में पहुँचे। जो क्रेते से 20 से 30 मील दूर है। जब वे द्वीप के सुरक्षित क्षेत्र में पहुँचे तो उन्हें जहाज की डोंगी को नियंत्रित करने में कठिनाई हुई। एक दिन आँधी के थपेड़ों के भरोसे रहने के बाद उन्होंने जहाज के सामानों को फेंकना शुरू किया। तीसरे दिन उन्होंने जहाज से वह सब कुछ फेंक दिया जो अनावश्यक था। चूँकि जहाज में पानी घुस रहा था, जहाज को डूबने से बचाने के लिये उनका वजन कम करना जरूरी था। कई दिनों तक असहाय रीति से हिलकोरे खाते रहे। अंततः बचने की उम्मीद खो दी गई। लोगों ने कई दिनों से खाना नहीं खाया था। निसंदेह वे जहाज की रक्षा करने और पानी फेंकने में व्यस्त थे। शायद बीमारी डर और निराशा ने उनकी भूख चुरा ली थी। वहाँ भोजन की कमी नहीं थी, परंतु खाने की इच्छा भी नहीं थी। फिर पौलुस आशा के संदेश के साथ उनके मध्य खड़ा हुआ। सबसे पहले उसने नम्रता से उन्हें बताया कि उन्हें क्रेते से नहीं आना चाहिये था। फिर उसने उन्हें ढांढस बंधाया कि यदि जहाज का नुकसान हो भी जाए तौभी प्राण हानि नहीं होगी। उसे कैसे पता चला? उस रात प्रभु का एक दूत उसे दर्शन दिया था और उसे यकीन दिलाया था कि रोम में कैसर के सामने खड़ा होना पड़ेगा। परमेश्वर ने बताया कि प्रेरित के साथ जितने लोग यात्रा कर रहे थे वे सब सुरक्षित रहेंगे। इसलिये वे आनंद करें। पौलुस ने विश्वास किया कि यदि किसी द्वीप पर जहाज टूट भी जाए तौभी सब कुछ ठीक ही रहेगा। जब से उन्होंने शुभलंगरवारी छोड़ा था, 14 दिन बीत चुके थे। अब वे असहाय रीति से यूनान,इटली और अफ्रीका के बीच के अद्रिया समुद्र मे भटक रहे थे।मध्य रात्रि के समय मल्लाहों को आभास हुआ कि वे किसी भूमि के पास पहुँच रहे थे। जहाज के जमीन से टकराव को बचाने के लिये उन्होंने चार लंगर डाले और दिन निकलने की राह देखने लगे। अपने जीवन के विषय डर के कारण कुछ मल्लाहों ने छोटी नावों से किनारे जाने की योजना बनाया। दिन निकलने के थोड़ा पहले ही पौलुस ने लोगों को कुछ खाने को कहा, और याद दिलाया कि उन्होंने दो सप्ताहों से कुछ नहीं खाया था। भोजन करने का समय आ गया था, उनकी भलाई इसी में थी। प्रेरित ने उन्हें यकीन दिलाया कि उनका एक बाल भी बाँका न होगा। फिर उसने रोटी लेकर सबके सामने धन्यवाद देते हुए उसे खाकर उनके सामने आदर्श रखा। इस बात ने दूसरों को भी प्रोत्साहित किया और उन्होंने भी भोजन लिया। भोजन के पश्चात् उन्होने गेहूँ को समुद्र में फेंकर जहाज का वजन कम किया। जमीन नजदीक ही थी परंतु वे उसे पहचान नहीं पाए। निर्णय लिया गया कि जहाज को जमीन के पास ले जाया जाए। उन्होंने लंगर समुद्र में डाल दिए। सैनिकों का विचार कैदियों को मार डालने का था ताकि वे भाग न जाएँ, परंतु सूबेदार पौलुस को बचाना चाहता था। इसलिये उसने आज्ञा दिया कि जो तैरकर किनारे जा सकते थे चले जाएँ। बाकी लोगों को लकड़ी के तख्ते पर बैठकर बढ़ने को कहा। इस प्रकार चालक दल का हर सदस्य और यात्री सभी सुरक्षित रीति से जमीन पर पहुँच गए। जैसे ही यात्री और चालक दल किनारे पहुँचे उन्होंने पाया कि वे माल्टाद्वीप पर थे। उस टापू के रहवासियों ने जहाज को टूटते देखा था और पीड़ितों को तैरकर किनारे आता देखा था। उन्होंने दयालुता के साथ उनके लिये आग जलाया। जब पौलुस आग जलाने के लिये लकडियाँ इकट्ठी कर रहा था उसे एक जहरीलें साँप न डस लिया। उसे काटने के लिये साँप ने उसके हाथ को लपेट लिया था। उसने अपना हाथ आग पर झटक दिया। पहले तो द्वीप के लोगों ने निष्कर्ष निकाला कि प्रेरित अवश्य ही कोई खूनी होगा। यद्यपि वह जहाज के टूटने से बच गया था, फिर भी न्याय उसे छोड़ नहीं रहा था, और अब वह जल्द ही जहर के कारण सूज जाएगा और गिरकर मर जाएगा। लेकिन जब पौलुस पर सर्प दंश का कोई बुरा प्रभाव नहीं दिखा तो उन्होंने अपने विचार बदले और निर्णय लिया कि जरूर यह कोई देवता था। उस भूमि के पास ही वहाँ के एक प्रसिद्ध व्यक्ति की जमीन थी जिसका नाम पुबलियुस था जिसने उनका स्वागत किया और तीन दिनों तक उनकी पहुनाई किया। ऐसा हुआ कि पुबलिथुस का पिता बिस्तर पर था, और उसे बार-बार ज्वर आता था और उसे आँव लहू की तकलीफ थी पौलुस उसे देखने गया और जब उसने उसके लिये प्रार्थना किया उस पर हाथ रखा तो वह वृद्ध व्यक्ति चंगा हो गया। इस घटना के बाद उस टापू के अन्य लोगों ने भी जो बीमार थे आकर चंगाई प्राप्त किया। शीत के तीन माह के बाद, यात्रा शुरू की गई। इसलिये कैदियों के साथ सूबेदार सिकंदरिया के जहाज पर सवार हुआ जो शीतकाल में वहीं रूका था। माल्टा से वे सिसली की राजधानी सूरकूसा आए। वहाँ पर जहाज 3 दिनों तक रूका रहा और रेगियुम को चल पड़ा। एक दिन के बाद वहाँ सहायक दक्षिणी हवा चली जिससे दल को पुतियुली पहुँचने में सहायता मिली जो नेपल्स की खाडी के उत्तर में है। यहाँ पौलुस को कुछ मसीही भाई मिले जिनके साथ उसे 7 दिनों तक संगति करने की अनुमति दी गई। जब रोम के विश्वासियों ने पुतियाली में उनके आने की खबर सुना तो अप्पियुस के चैक और तीन सराए तक उससे भेंट करने चले आए। जब पौलुस ने उन्हें देखा उसने परमेश्वर को धन्यवाद दिया और ढाढ़स बांधा।
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