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पहाड़ी उपदेश लूका 6:45 विश्व साहित्य में पहाड़ी उपदेश सर्वज्ञात है। इसे यीशु की शिक्षाओं का सार कहा जा सकता है। अनेक धार्मिक अगुवों ने इस शिक्षा का अनुसरण एवं सम्मान करने का प्रयास किया है। क्योंकि यह उपदेश पहाड़ी पर से दिया गया था, इसे 'पहाड़ी उपदेश' कहा जाता है। श्रोतागण बारह चेले एवं एक बड़ी भीड़ थी। इस उपदेश का विषय परमेश्वर के राज्य के नागरिकों के गुण एवं दायित्व हैं। धन्य कौन है धन्य कौन हैं? वे जो मसीह के राज्य के नागरिक हैं। पद 5:3-12 इन नागरिकों की आठ धन्यताओं के विषय बताते हैं। संसार के नैतिक स्तरों को स्वीकार करना एक चुनौती है। 1. मन के दीन (5:3): व्यवहारिक पवित्रता के मार्ग पर पहला कदम अपनी आत्मिक कमी को स्वीकार करना है। यह स्वीकार करना आवश्यक है कि उसमें कुछ भी भला नहीं है - केवल वह जो परमेश्वर से प्राप्त करता है। 2. जो शोक करते हैं (5:4): धन्य हैं वे जो शोक करते हैं। यह शोक उसके पापों के लिए प्रायश्चित का परिणाम है। 3. जो नम्र हैं (5:5): कई लोग नम्रता को कमज़ोरी समझते हैं। स्वर्ग के नागरिक, यद्यपि वे बलवान हैं, नम्र हैं। समस्त परीक्षाओं के मध् य वे आत्म-संयम रखते हैं। वे धीरज से सहते हैं। ऐसे लोग बड़ी आशीषें पाएंगे। 4. जो धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं (5:6): यह न्यायपूर्ण राज्य को देखने की महान अभिलाषा है। अपने चारों ओर जब तक हम शांति और न्याय नहीं देखते हम संतुष्ट नहीं हो सकते हैं। 5.जो दयावन्त हैं (5:7): यह आवश्यक है कि हम निस्सहाय लोगों के साथ सहानुभूति रखें। उन दिनों में रोमियों को क्रूर समझा जाता था। दयावन्त होना एक भावना मात्र नहीं है, परंतु गलत व्यवहार, अन्याय इत्यादी को कुड़कुड़ाए बिना सहना भी है। दया तब प्रकट होती है जब हम उसे दया दिखाते हैं जो उसके योग्य हैं। हमें उनकी सहायता करना चाहिए। 6.जिनके मन शुद्ध हैं (5:8): परमेश्वर को देखने के लिए एक शुद्ध मन होना बहुत महत्वपूर्ण है। हृदय में मन, अभिलाषा और भावनाएं शामिल होती हैं। परमेश्वर बाहरी शुद्धता से संतुष्ट नहीं होता है। वह एक अशुद्ध मन में नहीं रह सकता है। मनुष्य का अपना कोई प्रयास उसके हृदय को शुद्ध नहीं कर सकता है। पवित्र शास्त्र से हम सीखते हैं कि केवल मसीह का लोहू ही उसे शुद्ध कर सकता है। वे परमेश्वर को देख सकते हैं। 7. जो मेल करने वाले हैं (5:9): संसार में मेल और शांति लाना बहुत कठिन कार्य है। यू.एन.ओ. इस प्रयास में लगा है। उनका लक्ष्य राष्ट्रों के मध्य एकता लाना है। मसीह शाांति देने इस संसार में आया। वह शांति का राजकुमार है (यशा. 9:6)। परमेश्वर अपनी संतानों से अपेक्षा करता है कि वे संसार में मेल कराएं। मसीह इसलिए आया कि पापी मनुष्य को धर्मी परमेश्वर के पास लाए और उसके साथ मेल कराए। विश्वासियों के शांति भंग करने वाले नहीं परंतु शांति स्थापित करने वाले होना चाहिए। 8. जो सताए जाते हैं (5:10,11): यह सच है कि परमेश्वर के लोग सताए जाते हैं। प्रत्येक युग में परमेश्वर की संतानों को संसार का बैर सहना होता है (प्रे.काम 14:22)। राज्य के नागरिक कौन हैं? प्रभु ने राज्य के नागरिकों की तुलना नमक एवं ज्योति से की (5:13-16)। नमक का उपयोग वस्तु को सड़ने से बचाने के लिए किया जाता है। परमेश्वर के लोगों का दायित्व है कि लोगों को विनाश से बचाने के लिए अथक परिश्रम करें। जिस रीति से ज्योति अंधकार को दूर करती है, हमें इस संसार में आत्मिक अंधकार को दूर करने के लिए चमकना है। हमें इस संसार में चमकना है ताकि अन्य लोग हम में मसीह को देख सकें। राज्य के नैतिक स्तर को भी बताया गया है। मसीह ने व्यवस्था का पालन किया, मसीह ने बड़ी सामर्थ एवं अधिकार के साथ सिखाया और व्यवस्था की व्याख्या इस रीति से की जो कि फरीसियों एवं यहूदी शिक्षकों से भिन्न थी। क्योंकि हत्या, घृणा का परिणाम है, यीशु ने सिखाया कि हत्या घृणा के समान है और दण्डनीय है। व्यभिचार शारीरिक लालसा का परिणाम है और यीशु ने कहा, "जो कोई किसी स्त्री को बुरी दृष्टि से देखता है वह अपने मन में उस स्त्री के साथ व्यभिचार कर चुका।" तलाक के सम्बंध में, यीशु ने कहा, इसकी कभी अनुमति नहीं है। व्यवस्था में झूठी शपथ खाने की निन्दा की गई है (लैव्य. 6:3; होशे 10:3)। परंतु यीशु की शिक्षा इससे बढ़कर थी, "कभी शपथ न खाना, न तो स्वर्ग की, न ही धरती की" (मत्ती 5:33-36)। विश्वासियों को सच बोलना चाहिए और केवल सच ही। शपथ खाना पाप है। जब व्यवस्था ने सिखाया, "आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत", यीशु ने कहा, "वरन् जो तेरे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे उसकी ओर दूसरा भी फेर दे" (5:38-42)। धार्मिक रीतियों को व्यक्तिगत महिमा के लिए नहीं, परंतु परमेश्वर की महिमा के लिए होना चाहिए। दान देने, प्रार्थना एवं उपवास करने में यह भावना होना चाहिए। परमेश्वर का भय सबसे महत्वपूर्ण है और हृदय से माना जाना चाहिए। आज विश्वासी लोग व्यवस्था के अधीन नहीं हैं (प्रे.काम 15:10; गला5:1)। हम व्यवस्था के शाप से छुड़ाए गए हैं (गला. 3:13)। यद्यपि हम मूसा की व्यवस्था के अधीन नहीं हैं हम मसीह की व्यवस्था के अधीन हैं जो रीतियों की व्यवस्था से कहीं श्रेष्ठ है। हमें मसीही नैतिक सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। यह उद्धार के लिए नहीं है, परंतु इसलिए कि हम बचाए गए हैं। यह हमारे परिवर्तित जीवन का परिणाम है।
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