Class 4, Lesson 33: पहाड़ी उपदेश

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हम पहले ही देख चुके हैं कि यीशु ने सर्वजनिक सेवकाई की शुरूवात में ही बारह चेलों को चुना। चेलों का चुनाव करने के बाद उसने उन्हें अपने साथ लिया और गलील के कई भागों में यहूदी आराधनालयों में प्रचार करते रहा, राज्य का सुसमाचार का प्रचार किया और बीमारों को चंगा करते फिरा (4:23-25)। उसका नाम आसपास के क्षेत्रों में फैल गया और भीड़ उसके पीछे चलने लगी। इस बड़ी भीड़ को जिसे आराधनालयों में स्थान नहीं मिलता था, वह खुले स्थानों में प्रचार करने लगे। यह भाग बाइबल के महान अनुच्छेदों में से एक है। यह शायद इस बात का महत्व बढ़ाने के लिये लेखक विशेषतः कहता है कि ‘‘उसने अपना मुँह खोला और सिखाया।’’ इस पाठ में हम उपदेश के विषय कुछ ही सामान्य बातों को सीख सकते हैं। यद्यपि यीशु को सुनने वालों की बड़ी भीड़ थी, लूका 6:20 करहती है ‘‘उसने अपने चेलों की ओर देखकर कहा।’’ यहाँ कई बातों के विषय निर्देश हैं, परंतु हम उपदेश को चार मुख्य भागों में बाँट सकते हैं। 1) उन लोगों को धन्य वह जो परमेश्वर राज्य में हैं 5:1-16) हम उन लोगों के विषय बातें करते हैं जिनके पास धन, शिक्षा, सुन्दता या बुद्धि है, या ‘धन्य’ या ‘सुखी’ हैं, परंतु प्रभु की आखों में ‘मन के दीन’, शोक करनेवाले, नम्र, मन के शुद्ध, मेल करवाने वाले और धर्म के निमित्त सताए जाते हैं, वे वास्तव में धन्य हैं। 2) यीश की शिक्षाआओं व्यवस्था के बीच संबंध ( 5:17-48) व्यवस्था अपरिवर्तनीय है, और यह अद्भुत है, परंतु यह व्यवस्था के शब्दों का पालन नहीं है, परंतु शब्दों के पीछे की भावना है जिसे विश्वासियों को अपनाना चाहिये। इसे आगे 21-48 पदों में समझाया गया है। इस अनुच्छेद में हमारे पास पांच पाईंट हैं। ’ यह काफी नहीं कि कोई हत्या न करें, परंतु उसे क्रोध पर विजय पाना चाहिये जो हत्या करवाता है। (पद 21-22) ’ व्यक्ति को न केवल व्यभिचार से दूर रहना चाहिये, परंतु उसे स्वयँ को अशुद्ध विचारों से भी दूर रखना चाहिये जो व्यभिचार करवाते हैं (पद 27-32)। ’ व्यक्ति को हर बात में इतना इमानदार होना चाहिये कि शपथ खाने की जरूरत नहीं पड़ना चाहिये (पद 33-37)। ’ व्यक्ति में बदले की भावना नहीं होना चाहिये (पद 38-42)। ’ सबसे प्रेम करें और सब के साथ शांति से रहें (पद 43-48)। 3) व्यवहारिक जीवन मं शिष्यों की नीति ( 6:1-7:12) यहाँ हमारे पास तीन पाईंट हैं। 1) पाखंडीपन न करें (6:1-18)। आप वैसा ढोंग करें और प्रार्थना करें। व्यर्थ पुनरावृत्ति न करें। उपवास में पाखंडीपन नहीं, पद 16-18। केवल पिता जो गुप्त में देखता हे उसे हीन करे जो आप नहीं हैं। देने में पाखंडीपन नहीं, पद 1-4। देना गुप्तरीति से किया जाए। प्रार्थना करने में पाखंडीपन नहीं, पद 5-15। अपने कमरे में जाएँ। दरवाजा बंद जानना चाहिये कि व्यक्ति उपवास कर रहा है2) परमेश्वर पर विश्वास करें और चिंता न करें (6ः19-34)। खीज कर यह न कहें कि ‘‘मैं क्या खाऊंगा? क्या पीऊंगा? क्या पहनूंगा?’’ 3) अपने भाई से अच्छा व्यवहार करें (7:1-12)। जो तुम चाहते हो कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही करो।’’ 4) परमेश्वर के वचन के प्रति शिष्यों की नीति (7:13-27) तीन बातां पर ध्यान दें 1) सकरे फाटक से प्रवेश करें। पद 13-14। मसीह का शिष्य स्वतंत्र नहीं होता कि संसार की सभी शिक्षाओं और मतां को स्वीकार कर ले। जब लोग कहते हैं कि सभी धर्म और विश्वास स्वर्ग ही को ले जाते हैं, परमेश्वर की संतान को यह मालुम होता है कि ‘‘क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिसके द्वारा हम उद्धार पा सके।’’ (प्रेरितों के काम 4:12)। 2) जैसे व्यक्ति फल से उसके पेड़ को जान लेता है, झूठा भविष्यवक्ता भी पहचाना जाएगा, और उसके शब्दों पर विश्वास नहीं करना चाहिये (पद 15-20)। 3) बुद्धिमान व्यक्ति के समान जिसने चट्टान पर अपना घर बनाया, शिष्य को भी परमेश्वर का वचन सुनना चाहिये और व्यवहारिक रूप से पालन करना चाहिये (पद 21-27) नोट : प्रार्थना (मत्ती 6:9-13)। इसे शिष्यों की प्रार्थना कहा जा सकता है। यद्यपि पुराने नियम में कई प्रार्थनाएँ लिखी हैं, हम किसी को भी परमेश्वर को ‘‘पिता’’ कहते हुए नहीं पाते। लेकिन, नए नियम में यीशु परमेश्वर को स्वर्गीय पिता कहता है। वह भी हमें उसे पिता कहने का अधिकार देता है (देखें यूहन्ना 1:12)। जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के पुत्र होने का अधिकार दिया (गलातियों 4:6)। यदि हम उसके बच्चे हैं, तो हम उसे पिता कहेंगे (मत्ती 6:9-10)। इस प्रार्थना के पहले भाग में परमेश्वर का नाम, उसका राज्य और उसकी इच्छा के विषय तीन याचनाएँ हैं। वे ये बातें है जिन्हें परमेश्वर की संतान को पहले खोजना चाहिये (पद 11-13)। अगली तीन बातें दैनिक भोजन, पापों की क्षमा करने और शैतान के शक्ति से छुड़ाने के लिये हैं। हम यह कह सकते हैं कि इस प्रार्थना में पूरे उपदेश का सारांश है। प्रभु ने यह नहीं कहा, ‘‘हम प्रार्थना करेंगे।’’ उसने कहा, तुम इस प्रकार प्रार्थना किया करो।’’ हमें इन शब्दों को दोहराने की आवश्यकता नहीं है, परंतु हमें ‘‘इस तरह प्रार्थना करना चाहिये।’’ यीशु ने प्रार्थना ऐसे नहीं किया, ‘‘हमारे पिता’’ परंतु ‘‘मेरे पिता’’ कहा। हमसे भिन्न उसका पुत्र होना अनोखा था। उसे क्षमा के लिये प्रार्थना की कोई जरूरत नहीं थी।

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